धर्म, जाति और समाजवाद

#धर्म जाति और समाजवाद
आम मेहनतकश जनता पर धर्म का जो इतना गहरा प्रभाव है और जो वह उनके शोषण को और गहरा बना देता है उसके बारे में अपने लेख 'समाजवाद और धर्म' में लेनिन लिखते हैं:--
,"हमें किसी भी हालत में धार्मिक प्रश्न को अरूप, आदर्शवादी ढंग से, वर्ग संघर्ष से असम्बद्ध एक "बौद्धिक" प्रश्न के रूप में उठाने की ग़लती का शिकार नहीं बनना चाहिए, जैसा कि बुर्जुआ वर्ग के बीच उग्रवादी जनवादी कभी-कभी किया करते हैं। यह सोचना मूर्खता होगी कि मज़दूर अवाम के सीमाहीन शोषण और संस्कारहीनता पर आधारित समाज में धार्मिक पूर्वाग्रहों को केवल प्रचारात्मक साधनों से ही समाप्त किया जा सकता है। इस बात को भुला देना कि मानव जाति पर लदा धर्म का जुवा समाज के अन्तर्गत आर्थिक जुवे का ही प्रतिबिम्ब और परिणाम है, बुर्जुआ संकीर्णता ही होगी। सर्वहारा यदि पूँजीवाद की काली शक्तियों के विरुद्ध स्वयं अपने संघर्ष से प्रबुद्ध नहीं होगा तो पुस्तिकाओं और शिक्षाओं की कोई भी मात्रा उन्हें प्रबुद्ध नहीं बना सकती।"
भारतीय समाज में  मेहनतकशों के उत्पीड़न में धर्म के कर्मकांडों, तथा जाति आधारित परंपराएं, पूर्वाग्रह तथा शासक वर्गों के अंदर श्रेष्ठता का घमंड महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसे तोड़ने के लिए आवश्यक है कि उसे खाद पानी देने वाली पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था तथा मेहनत कशों के शोषण से प्राप्त होने वाले मुनाफे का अंत हो। तभी मजदूर वर्ग जातीय अहम और तमाम तरह के पूर्वाग्रहों, कर्मकांड तथा परंपराओं को खत्म कर सकता है जो मेहनतकशों को सामाजिक जीवन में जलील करता है।
  यहां प्रश्न उठता है कि क्या पूंजी के शासन के रहते हुए धार्म तथा जाति आधारित परंपराओं पूर्वाग्रहों तथा श्रेष्ठता के घमंड को तोड़ा जा सकता है?
लेनिन इन सबके लिए जड़ पर प्रहार करने के लिए सर्वहारा को संगठित होने कहते हैं। मजदूर वर्ग अन्य मेहनतकश वर्गो के साथ मिलकर सत्ता प्राप्त करके समाजवाद के निर्माण के दौरान ही जाति तथा धर्म आधारित शोषण को खत्म कर सकता है। यूं कहिए कि आज जो मुनाफा पूंजीपति और शोषक वर्ग प्राप्त कर रहे हैं, उसी के बल पर अपनी तमाम प्रतिक्रियावादी परंपराओं, तौर-तरीकों तथा श्रेष्ठता को वे मेहनतकशों पर लाद रहे हैं। इसलिए जो लोग पूंजीवाद को बचाए रखना चाहते हैं और जोर जोर से उत्पीड़ित तथा मेहनतकश जातियों के बीच जाकर जाति के खात्मे का नारा लगाते हैं, वे दरअसल जाति को बनाए रखना चाहते हैं और उसके माध्यम से पूंजीवादी शोषण को जारी रखना चाहते हैं। किसी भी सुधारक, चिंतक, राजनीतिक पार्टी या आंदोलन का मूल्यांकन इस बात के आधार पर होना चाहिए कि वह पूंजी के द्वारा श्रम शक्ति को गुलाम रखना चाहता है या पूंजी की जंजीरों से उसकी मुक्ति चाहता है। अक्सर दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में बड़ी आबादी के रूप में बसी बाल्मीकि समाज के जातीय उत्पीड़न की चर्चा होती है। लेकिन वे जाति के साथ साथ मजदूर भी हैं जिनकी 90- 95% आबादी सफाई कर्मचारी के रूप में कॉरपोरेशन, मेट्रो तथा विभिन्न सरकारी और निजी संस्थाओं में काम करते हैं। यहां इनकी मजदूरी इतनी कम है कि उनके बच्चे सही से स्कूल नहीं जा पाते हैं। जब जीवन की परिस्थिति इतनी बदहाल रहेगी और पूंजी का शोषण जारी रहेगा, तब उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी सफाई कर्मचारी के रूप में गटर में उतरने को मजबूर बने रहेंगे। पूंजीवाद जाति से जुड़े हुए पेशे को वहीं तक समाप्त करता है, जहां तक वह उसके मुनाफे को बढ़ाने में मदद करता है। इसलिए वह कम से कम मजदूरी देकर मेहनतकशों की विभिन्न जातियों को शारीरिक तौर पर खतरे लेकर ऐसे काम में लगाये रहता है। ठीक इसके विपरीत समाजवाद मशीनों का ज्यादा से ज्यादा उपयोग कर तथा काम के घंटों को कम से कम करके उत्पीड़ित मेहनतकश जातियों के सामने ऐसा अवसर प्रदान करेगा कि उनके बच्चे और वे खुद जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान, खेल, प्रशासन आदि में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें और एक नए मानव की तरह मानव समाज के विकास में अपनी भूमिका तय करें।

नरेंद्र कुमार

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