''... हर प्रकार का धर्म मनुष्यों के दिमागों में उन बाह्य शक्तियों के काल्पनिक प्रतिबिम्ब के सिवा और कुछ नहीं होता जो उनके दैनिक जीवन पर शासन करती हैं। इस प्रतिबिम्ब में पार्थिव शक्तियाँ अलौकिक शक्तियों का रूप धारण कर लेती हैं। इतिहास के आरम्भ में पहले प्रकृति की शक्तियाँ इस प्रकार मनुष्य के दिमागों में प्रतिबिम्बित हुई थीं। आगे जो विकास हुआ, उसके दौरान इन्हीं शक्तियों ने विभिन्न जातियों के यहाँ नाना प्रकार से मूर्त रूप धारण कर लिय। तुलनात्मक पुराण-विद्या ने कम से कम इण्डो-यूरोपीय जातियों के बारे में इस प्रारम्भिक प्रक्रिया के क्रम का उसके मूल बिन्दु तक पता लगा लिया है। यह प्रक्रिया आरम्भ हुई थी भारतीय वेदों में, और उसके बाद उसका जिसप्रकार विकास हुआ, उसका भारतीयों , फ़ारसियों, यूनानियों, रोमनों और जर्मनों के इतिहास में विस्तार के साथ निरूपण किया जा चुका है; और जहाँ तक उपलब्ध सामग्री ने सम्भव बना दी, उसका केल्ट लोगों, लिथुआनियनों और स्लाव लोगों के इतिहास में भी निरूपण किया जा चुका है। लेकिन बहुत दिन नहीं बीतने पाये थे कि प्रकृति की शक्तियों के साथ-साथ सामाजिक शक्तियाँ भी क्रियाशील होने लगीं। मनुष्यों की दृष्टि में ये शक्तियाँ भी उतनी ही परायी और उतनी ही अबोध्य थीं, जितनी स्वयं प्राकृतिक शक्तियाँ थीं। और ये भी उनपर प्रकृति की शक्तियों जैसी प्रकटत: प्राकृतिक अनिवार्यता के साथ शासन करती थीं। वे काल्पनिक आकृतियाँ, जो शुरू में केवल प्रकृति की रहस्यमयी शक्तियों को ही प्रतिबिम्बित करती थीं, इस बिन्दु पर पहुँचकर सामाजिक विशिष्टताएँ ग्रहण कर लेती हैं और इतिहास की शक्तियों की प्रतिनिधि बन जाती हैं। विकास की और भी आगे की एक अवस्था में अनेक देवताओं के समस्त प्राकृतिक तथा सामाजिक गुण एक परम शक्तिशाली ईश्वर में स्थानांतरित कर दिये जाते हैं, जो केवल अमूर्त मानव का प्रतिबिम्ब होता है। एकेश्वरवाद की उत्पत्ति इस प्रकार हुई थी। वह उत्तरकालीन यूनानियों के विकृत दर्शन का अन्तिम फल था, और वह यहूदियों के विशिष्टतया जातीय देवता जेहोवा के रूप में साकार हुआ था। इस सुविधाजनक, उपयुक्त एवम सर्वत्र अनुकूलनीय रूप में धर्म मनुष्यों पर शासन करने वाली, प्राकृतिक एवं सामाजिक, परायी शक्तियों के साथ उनके सम्बन्धों के तात्कालिक, अर्थात् भाव प्रधान रूप में उससमय तक जीवित रह सकता है, जबतक कि मनुष्य इन शक्तियों के नियंत्रण में रहते हैं। परन्तु हम बार-बार यह बात देख चुके हैं कि वर्तमान पूँजीवादी समाज में मनुष्यों पर उनकी अपनी पैदा की हुई आर्थिक परिस्थितियाँ शासन करती हैं। उनपर वे उत्पादन के साधन शासन करते हैं, जिनको खुद उन्होंने तैयार किया है। और उनको लगता है, जैसे कोई परायी शक्ति उनपर शासन कर रही है। इसलिए परावर्तन की जिस क्रिया से धर्म का जन्म हुआ है, उसका वास्तविक आधार अब भी मौजूद है, और उसके साथ-साथ स्वयं धार्मिक परावर्तन भी मौजूद है। और यद्यपि पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र ने इन परायी शक्तियों के शासन के कारणिक सम्बन्धों पर भी कुछ प्रकाश डाला है, तथापि इससे कोई मौलिक अन्तर नहीं पैदा होता। पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र न तो सामान्य संकटों को रोक सकता है और न ही अलग-अलग पूँजीपतियों को हानि, अप्राप्य त्रृण, दिवालियेपन से, न ही वह मज़दूरों को बेरोज़गारी और निर्धनता से बचा सकता है। यह बात आज भी सही है कि मनुष्य इच्छा करता है और फल का निश्चय भगवान (अर्थात् पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली की परायी शक्तियाँ) करता है। केवल ज्ञान प्राप्ति -- यहाँ तक कि यदि वह पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र से बहुत आगे और बहुत गहराई तक विकास कर जाये, तब भी -- केवल ज्ञान-प्राप्ति सामाजिक शक्तियों पर समाज का शासन क़ायम करने के लिए पर्याप्त नहीं होता। इसके लिए जो चीज़ सर्वोपरि आवश्यक है, वह है एक सामाजिक
कार्य।और जब यह कार्य सम्पन्न हो जाता है, जब समाज उत्पादन के समस्त साधनों पर अधिकार करके तथा उनका एक योजनाबद्ध ढंग से उपयोग करके अपने आपको तथा समस्त सदस्यों को उत्पादन के उन साधनों की दासता से मुक्त कर देता है, जिनको उसके सदस्यों ने अपने हाथों से बनाया है, पर जो फिर भी एक दुर्धर और परायी शक्ति के रूप में उनके मुकाबले में खड़े हो जाते हैं; और इसलिए जब मनुष्य केवल इच्छा ही नहीं करता, बल्कि उसका फल भी निश्चित करने लगता है, तब जाकर कहीं उस अन्तिम परायी शक्ति का लोप होगा, जो आज भी धर्म में प्रतिबिम्बित हो रही है और उसके साथ-साथ स्वयं धार्मिक परावर्तन का भी लोप हो जायेगा, क्योंकि तब ऐसी कोई चीज़ नहीं रहेगी, जिसका परावर्तन हो सके।
-- फ्रेडरिक एंगेल्स
(ड्यूहरिंग मत-खण्डन)
दो -
मार्क्सवाद भौतिकवाद है। इसलिए धर्म का यह उतना ही निर्मम शत्रु है जितना कि अठारहवीं शताब्दी के विश्वकोशकारों का भौतिकवाद या फ़ायरबाख़ का भौतिकवाद था -- इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विश्वकोशकारों और फ़ायरबाख़ से भी आगे जाता है, क्योंकि भौतिकवादी दर्शन को इतिहास के क्षेत्र में, सामाजिक विज्ञानों के भी क्षेत्र में वह लागू करता है। धर्म के विरुद्ध हमें लड़ाई लड़नी चाहिए -- समस्त भौतिकवाद का और फलस्वरूप मार्क्सवाद का भी यह ककहरा है। लेकिन मार्क्सवाद ऐसा भौतिकवाद नहीं है, जो ककहरे पर ही रुक गया हो। वह आगे जाता है। वह कहता है: हमें यह भी जानना चाहिए कि धर्म के विऱद्ध लड़ाई कैसे लड़ी जाये, और ऐसा करने के लिए ईश्वर और धर्म के मूल को भौतिकवादी पद्धति से जनता को हमें समझाना होगा। धर्म के विऱद्ध चलाये जाने वाले संघर्ष को अरूप सैद्धान्तिक शिक्षाओं तक ही सीमित नहीं किया जा सकता, और ऐसा किया भी नहीं जाना चाहिए। इस संघर्ष का सम्बन्ध वर्ग-आन्दोलन के उस ठोस व्यवहार के साथ जोड़ना चाहिए जिसका उद्देश्य धर्म की सामाजिक जड़ों का उन्मूलन करना है। शहरी सर्वहारा वर्ग के पिछड़े हिस्सों पर, अर्द्ध-सर्वहारा के व्यापक हिस्सों पर, और किसानों के जन-समुदाय पर धर्म का प्रभाव क्यों बना हुआ है? बुर्जुआ प्रगतिशील, उग्रवादी या बुर्जुआ भौतिकवादी उत्तर देता है: जनता के अज्ञान के कारण। और इसलिए: ''धर्म का क्षय हो, यथार्थवाद चिरंजीवी हो, नास्तिकता(अनीश्वरवाद) के विचारों का प्रचार करना ही हमारा मुख्य कर्तव्य है।'' मार्क्सवादी कहता है, यह सही नहीं है, यह एक सतही दृष्टिकोण है, संकीर्ण बुर्जुआ सुधारकों का दृष्टिकोण है। यह धर्म के मूल की पर्याप्त गहराई से व्याख्या नहीं करता, यह उसकी भौतिकवादी नहीं बल्कि भाववादी व्याख्या करता है।
आधुनिक पूँजीवादी देशों में धर्म की ये जड़ें मुख्यतया सामाजिक हैं। आज धर्म की सबसे गहरी जड़ का कारण मेहनतक़श जनता की सामाजिक रूप से पददलित स्थिति तथा पूँजीवाद की उन अन्धी शक्तियों के सामने प्रत्यक्ष दिखने वाली उसकी पूर्ण असहायावस्था है, जो हर रोज़ और हर घण्टा उसे सर्वाधिक भयंकर यातनाओं तथा बर्बर उत्पीड़न की चक्की में पीसती रहती है। यह यातनाएँ और यंत्रणाएँ उन यातनाओं और यंत्रणाओं से भी हज़ार गुना अधिक कठोर होती हैं, जो युद्धों, भूचालों, आदि जैसी असाधारण घटनाओं के चलते उसे भोगनी पड़ती हैं। ''देवताओं का जन्म भय से हुआ है।'' पूँजी की अन्धी शक्ति के भय से -- यह शक्ति अन्धी इसलिए होती है कि जनता उसे पहले से नहीं देख-जान सकती। यह शक्ति ऐसी है जो सर्वहारा वर्ग तथा छोटे मालिकों की ज़िन्दगी के हर कदम पर न केवल 'अचानक', 'अप्रत्याशित', 'आकस्मिक', तबाही, विध्वंस, दरिद्रता, वेश्यावृत्ति, भुखमरी से मौत के भय से आक्रान्त रखती है, बल्कि इन मुसीबतों के पहाड़ों को उनके ऊपर ढाती रहती है -- यह है आधुनिक धर्म की जड़ जिसे भौतिकवादी को, यदि वह 'दूधपीता' भौतिकवादी नहीं बने रहना चाहता -- सबसे पहले और सर्वप्रमुख रूप से ध्यान में रखना चाहिए। इन जन-समुदायों के मस्तिष्कों से, जो पूँजीवादी कठोर श्रम के भार से कुचले हुए हैं और जो पूँजीवाद की अन्धी विनाशकारी शक्तियों की 'दया-दृष्टि' पर आधारित रहते हैं, शिक्षा की कोई भी पुस्तक धर्म को नहीं निकाल सकती जबतक कि ये जन-समुदाय स्वयं धर्म की जड़ से लड़ना नहीं सीख लेते, जबतक कि सर्वथा एकताबद्ध, संगठित, सुनियोजित तथा सचेत ढंग से वे पूँजी के शासन के सभी रूपों के विरुद्ध संघर्ष करना नहीं सीख लेते।
इसका अर्थ क्या यह होता है कि धर्म के विरुद्ध लिखी गयी शैक्षणिक पुस्तकें हानिकर अथवा अनावश्यक हैं? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। इसका अर्थ यह है कि सामाजिक जनवाद के नास्तिकतावादी प्रचार को उसके बुनियादी कर्तव्य के -- शोषकों के विरुद्ध शोषित जन समुदायों के वर्ग संघर्ष को विकसित करने के बुनियादी कर्तव्य के -- अधीन होना चाहिए।
-- व्ला. इ. लेनिन
(धर्म के प्रति मज़दूरों की पार्टी का दृष्टिकोण)
तीन
धर्म को एक व्यक्तिगत मामला घोषित कर दिया जाना चाहिएा समाजवादी अक्सर धर्म के प्रति अपने दृष्टिकोण को इन्हीं शब्दों में व्यक्त करते हैं। किन्तु किसी प्रकार की गलतफहमी न हो इसलिए आवश्यक है कि इन शब्दों के अर्थ की बिल्कुल ठीक-ठाक व्याख्या कर दी जाय। हम माँग करते हैं कि जहां तक राज्य का सम्बन्ध है, उसे धर्म को एक व्यक्तिगत चीज़ मानना चाहिए। किन्तु जहां तक हमारी पार्टी का सम्बन्ध है, धर्म को हम किसी भी प्रकार से एक व्यक्तिगत मामला नहीं मान सकते। धर्म से राज्य का कोई भी सम्बन्ध नहीं होना चाहिए और धामिर्क सोसाइटियों का भी सरकार की सत्ता से कोई सरोकार नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह चाहे जिस धर्म को माने, या चाहे तो किसी धर्म को न माने, अर्थात नास्तिक हो, जो आम तौर से, हर समाजवादी होता है। नागरिकों के साथ धामिर्क विश्वासों के आधार पर भेदभाव किया जाना सर्वथा असहनीय है। सरकारी कागजों में तो नागरिक के धर्म का उल्लेख भी निस्सन्देह समाप्त कर दिया जाना चाहिए। स्थापित चर्च को कोई सहायता नहीं दी जानी चाहिए और न पादरियों को तथा अन्य धामिर्क सोसायटियों को ही राज्य की ओर से किसी प्रकार के भत्ते दिये जाने चाहिए। इन्हें सम-विचार रखने वाले नागरिकों की पूर्ण रूप से स्वतंत्र संस्थाएं बन जाना चाहिए, ऐसी संस्थाएं जो राज्य से पूरी तरह स्वतंत्र हों।
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जहां तक समाजवादी सर्वहारा वर्ग की पार्टी का प्रश्न है, उसके लिए धर्म व्यक्तिगत मामला नहीं है। हमारी पार्टी मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले वर्ग-चेतन, अग्रणी योद्धाओं का संगठन है। ऐसा संगठन धार्मिक विश्वासों के रूप में प्रकट होने वाले वर्ग-चेतना के अभाव, अज्ञान अथवा रूढिवाद के सम्बन्ध में तटस्थ नहीं रह सकता, न उसे रहना ही चाहिएा हम चर्च से राज्य के बिल्कुल अलग कर दिये जाने की मांग करते हैं, तकि धार्मिक कुहासे के खिलाफ हम शुद्ध रूप से सैद्धान्तिक और केवल वैचारिक अस्त्रों के माध्यम से, अपने समाचार-पत्रों और भाषणों के माध्यम से संघर्ष कर सकें। लेकिन अपने संगठन की, रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी की, स्थापना ठीक ऐसे ही संघर्ष के लिए, मज़दूरों के हर प्रकार के धार्मिक शोषण के विरूद्ध संघर्ष के लिए ही हमने की है। और हमारे लिए वैचारिक संघर्ष कोई व्यक्तिगत मामला नहीं है, बल्कि वह सारी पार्टी का, समस्त सर्वहारा वर्ग का मामला है।
यदि बात ऐसी ही है तो अपने कार्यक्रम में यह घोषणा क्यों नहीं हम कर देते कि हम अनीश्वरवादी हैं? अपनी पार्टी में ईसाइयों और ईश्वर में आस्था रखने वाले अन्य धर्मावलम्बियों के शामिल होने पर हम रोक क्यों नहीं लगा देते?
इस प्रश्न का उत्तर ही उन अतिमहत्वपूर्ण अन्तरों को स्पष्ट कर देगा जो बुर्जुआ जनवादियों और सामाजिक जनवादियों द्वारा धर्म के प्रश्न को उठाये जाने के तरीकों में पाया जाता है।
हमारा कार्यक्रम पूर्णतया वैज्ञानिक और इसके अतिरिक्त, भौतिकवादी विश्व-दृष्टिकोण पर आधारित है। इसलिए हमारे कार्यक्रम की व्याख्या में धार्मिक धुन्ध के सच्चे ऐतिहासिक और आर्थिक स्रोतों की व्याख्या का भी आवश्यक रूप से समावेश है। हमारे प्रचार-कार्य में अनीश्वरवाद का प्रचार भी आवश्यक रूप से शामिल है; उपयुक्त वैज्ञानिक साहित्य को प्रकाशित करना भी -- जिस पर एकतंत्रीय शासन-प्रणाली ने अभी तक प्रतिबन्ध लगा रखा था और जिसे प्रकाशित करने पर दण्ड दिया जाता था -- अब हमारी पार्टी के कार्य का एक अंग बन जाना चाहिए। अब हमें सम्भवत: एंगेल्स की उस सलाह का अनुकरण करना होगा जो एक बार जर्मन समाजवादियों को उन्होंने दी थी: फ्रान्स के अठारहवीं शताब्दी के प्रबोधकों और अनीश्वरवादियों के साहित्य का अनुवाद करो और उसका व्यापक प्रचार करो।
परन्तु धर्म के प्रश्न को अरूप, आदर्शवादी ढंग से वर्ग-संघर्ष से असम्बद्ध एक ''बौद्धिक'' प्रश्न के रूप में उस तरह उठाने की गलती का शिकार हमें किसी भी दशा में नहीं बनना चाहिए, जिस तरह कि पूँजीपति वर्ग के उग्रवादी-जनवादी अक्सर उसे उठाया करते हैं। यह सोचना मूर्खता होगी कि मज़दूर जन-समुदायों के सीमाहीन शोषण और संस्कारहीनता पर आधारित समाज में धार्मिक पूर्वाग्रहों को केवल प्रचारात्मक साधनों से ही समाप्त कर दिया जा सकता है। इस बात को भुला देना कि मानव जाति पर लदा धर्म का जुआ समाज पर लदे आर्थिक जुए का ही प्रतिबिम्ब और परिणाम है, पूँजीवादी संकीर्णता होगी। सर्वहारा वर्ग यदि पूँजीवाद की काली शक्तियों के विरूद्ध स्वयं संघर्ष करके प्रबुद्ध नहीं बनता तो पुस्तिकाओं और उपदेशों की कोई भी मात्रा उसे प्रबुद्ध नहीं बना सकेगी। धरती पर स्वर्ग की रचना करने के लिए उत्पीडित वर्ग के वर्तमान वास्तविक क्रान्तिकारी संघर्ष में सर्वहारा वर्ग की एकता हमारे लिए परलोक-सम्बन्धी स्वर्ग के बारे में उसके दृष्टिकोण की एकता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
-- व्ला. इ. लेनिन
(समाजवाद और धर्म)
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