Tuesday, June 15, 2021

मेरे जूते को बचाकर रखना - गाज़ा नरसंहार पर एक मार्मिक कविता गाज़ा में

 गाज़ा में इज़रायली बमबारी से ढाये जा रहे क़हर की सबसे ह्रदय विदारक तस्‍वीरों में एक बच्‍चे के खून से सने जूते की तस्‍वीर भी थी जो शायद बमबारी में मारा गया था। Musab Iqbal ने इस पर अंग्रेज़ी में एक मार्मिक कविता लिखी थी जिसको हिन्‍दी के पाठकों तक पहुँचाने के लिए मैंने इस कविता का हिन्‍दी अनुवाद किया है:


मेरे जूते को बचाकर रखना
संभालकर रखना इसे कल के लिए
मलबे के बीच दम तोड़ रहे कल के लिए
मेरे जूते को बचाकर रखना
ग़म के संग्रहालय के लिए
उस संग्रहालय के लिए मैं दे रहा हूं अपने जूते को,
खू़न से सने जूते को
और हताशा में डूबे मेरे शब्‍दों को
और उम्‍मीद से लबरेज़ मेरे आंसुओं को
और सन्‍नाटे में डूबे मेरे दर्द को
समुद्र के किनारे से मेरे फुटबाल को भी उठा लेना,
या शायद उसके कुछ हिस्‍सों को जिन पर खून के धब्‍बे नहीं
एक महाशक्ति की कायरता के दस्‍तख़त हैं
मेरी स्‍मृति उस बम की खोल में सीलबन्‍द है
शोक की प्रतिध्‍वनि में, विदाई के चुंबन में
ज़ि‍न्‍द‍गी का हर रंग ज़हरीला है
और जानलेवा रसायनों के बादल हर ख्‍़वाब का दम घोट रहे हैं
वे तस्‍वीरें जो तुम्‍हें रात में परेशान करती हैं
और दिन में जब तुम हमारे बारे में पढ़ते हो (आराम फ़रमाते हुए)
वे तस्‍वीरें हमें परेशान नहीं करती हैं
अगर कोई चीज़ परेशान करती है तो वह है
तुम्‍हारी ख़ामोशी, तुम्‍हारी शिथि‍लता
तुम्‍हारी विचारवान निगाहें, तुम्‍हारा गुनहगार इंतज़ार
यहाँ आक्रोश एक सद्गुण है,
हमारा धैर्य हमारे प्रतिरोध में दर्ज़ है!

  
अनुवाद - अानन्‍द सिंह
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जीना - नाज़िम हिकमत की कविता

 


जीना कोई हँसी-मजाक की चीज़ नहीं,
तुम्‍हें इसे संजीदगी से लेना चाहिए।
इतना अधिक और इस हद तक
कि, जैसे मिसाल के तौर पर, जब तुम्‍हारे हाथ बँधे हों
तुम्‍हारी पीठ के पीछे,
और तुम्‍हारी पीठ लगी हो दीवार से
या फिर, प्रयोगशाला में अपना सफेद कोट पहने
और सुरक्षा-चश्‍मा लगाये हुए भी,
तुम लोगों के लिए मर सकते हो --
यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिनके चेहरे
तुमने कभी देखे न हों,
हालाँकि तुम जानते हो कि जीना ही
सबसे वा‍स्‍तविक, सबसे सुन्‍दर चीज है।
मेरा मतलब है, तुम्‍हें जीने को इतनी
गम्‍भीरता से लेना चाहिए
कि जैसे, मिसाल के तौर पर, सत्‍तर की उम्र में भी
तुम जैतून के पौधे लगाओ -- 
और ऐसा भी नहीं कि अपने बच्‍चों के लिए,
लेकिन इसलिए, हालाँकि तुम मौत से डरते हो
तुम विश्‍वास नहीं करते इस बात का,
इसलिए जीना, मेरा मतलब है, ज्‍यादा कठिन होता है।

- नाज़िम हिकमत

विजयी लोग - पाब्‍लो नेरूदा की कविता

 

मैं दिल से इस संघर्ष के साथ हूँ
मेरे लोग जीतेंगे
एक-एक कर सारे लोग जीतेंगे
इन दु:खों को
रूमाल की तरह तब-तक निचोड़ा जाता रहेगा
जब-तक कि सारे आँसू
रेत के गलियारों पर
कब्रों पर
मनुष्‍य की शहादत की सीढ़ियों पर
गिर कर सूख नहीं जाएँ
पर, विजय का क्षण नज़दीक है
इसीलिए घृणा को अपना काम करने दो
ताकि दण्‍ड देने वाले हाथ
काँपें नहीं
समय के हाथ को अपने लक्ष्‍य तक
पहुँचने दो अपनी पूरी गति में
और लोगों को भरने दो ये खाली सड़कें
नये सुनिश्चित आयामों के साथ

यही है मेरी चाहत इस समय के लिए
तुम्‍हें पता चल जायेगा इसका
मेरा कोई और एजेण्‍डा नहीं है

- पाब्‍लो नेरूदा
-अनुवाद - रामकृष्‍ण पाण्‍डेय
(परिकल्‍पना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित संकलन 'जब मैं जड़ों के बीच रहता हूँ' से साभार)

अल सल्‍वाडोर के क्रान्तिकारी कवि रोके दाल्‍तोन की कविता - तुम्‍हारी तरह

 मैं भी प्यार करता हूँ 

प्यार से, ज़‍िन्दगी से, 
चीज़ों की भीनी-भीनी खुशबू से, 
जनवरी के दिनों के आसमानी भूदृश्‍यों से। 

मेरा ख़ून भी खौलता है 
और मैं हँसता हूँ उन आँखों से 
जिन्‍हें पता है आँसुओं का किनारा

मुझे यकीन है कि दुनिया ख़ूबसूरत है 
और यह कि रोटी की तरह 
कविता भी सबके लिए है।

और यह भी कि मेरी रगें मुझमें नहीं
उन तमाम लोगों के एकदिल लहू में ख़त्‍म होती हैं
जो लड़ रहे हैं ज़‍िन्दगी के लिए, 
प्यार के लिए, 
चीज़ों के लिए,
भूदृश्‍यों और रोटी के लिए,
सबकी कविता के लिए।

अनुवाद - आनन्‍द सिंह (अक्षय काळे के मार्गदर्शन में)

हबीब जालिब की नज़्म “कॉफ़ी-हाउस”

 दिन-भर कॉफ़ी-हाउस में बैठे कुछ दुबले-पतले नक़्क़ाद*

बहस यही करते रहते हैं सुस्त अदब की है रफ़्तार
सिर्फ़ अदब के ग़म में ग़लताँ* चलने फिरने से लाचार
चेहरों से ज़ाहिर होता है जैसे बरसों के बीमार
उर्दू-अदब में ढाई हैं शायर ‘मीर’ ओ ‘ग़ालिब’ आधा ‘जोश’
या इक-आध किसी का मिस्रा या ‘इक़बाल’ के चंद अशआर
या फिर नज़्म है इक चूहे पर हामिद-‘मदनी’ का शहकार*
कोई नहीं है अच्छा शायर कोई नहीं अफ़्साना-निगार*
‘मंटो’ ‘कृष्ण’ ‘नदीम’ और ‘बेदी’ इन में जान तो है लेकिन
ऐब ये है इन के हाथों में कुंद ज़बाँ की है तलवार
‘आली’ अफ़सर ‘इंशा’ बाबू ‘नासिर’ ‘मीर’ के बर-ख़ुरदार
‘फ़ैज़’ ने जो अब तक लिक्खा है क्या लिक्खा है सब बे-कार
उन को अदब की सेह्हत का ग़म मुझ को उन की सेह्हत का
ये बेचारे दुख के मारे जीने से हैं क्यूँ बे-ज़ार*
हुस्न से वहशत* इश्क़ से नफ़रत अपनी ही सूरत से प्यार
ख़ंदा-ए-गुल पर एक तबस्सुम गिर्या-ए-शबनम* से इंकार
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*नक़्क़ाद – आलोचक
*ग़लताँ – लोटना
*शहकार – श्रेष्ठ कृति
*अफ़्साना-निगार – कहानीकार
*बे-ज़ार – ऊबे हुए
*वहशत – डर
*ख़ंदा-ए-गुल – फूल की हँसी
*तबस्सुम – मुस्कान
*गिर्या-ए-शबनम – ओस का दु:ख
साभार- https://rekhta.org/

बड़ी-बड़ी कोठिया सजाए पूँजीपतिया

 


बड़ी-बड़ी कोठिया सजाए पूँजीपतिया
कि दुखिया के रोटिया चोराए-चोराए
अपने महलिया में करे उजियरवा
कि बिजरी के रडवा जराए-जराए

कत्तो बने भिटवा कतहुँ बने गढ़ई
कत्तो बने महल कतहुँ बने मड़ई
मटिया के दियना तूहीं त बुझवाया
कि सोनवा के बेनवा डोलाए-डोलाए

मिलया में खून जरे खेत में पसीनवा
तबहुं न मिलिहैं पेट भर दनवा
अपनी गोदमिया तूहीं त भरवाया
कि बड़े-बड़े बोरवा सियाए-सिआए

राम अउर रहीम के ताके पे धइके लाला
खोई के ईमनवा बटोरे धन काला
देसवा के हमरे तू लूट के खाय
कई गुना दमवा बढ़ाए-बढ़ाए

जे त करे काम, छोट कहलावे
ऊ बा बड़ मन जे जतन बतावे
दस के सासनवा नब्बे पे करवावे
इहे परिपटिया चलाए-चलाए

जुड़ होई छतिया तनिक दऊ बरसा
अब त महलिया में खुलिहैं मदरसा
दुखिया के लरिका पढ़े बदे जइहैं
छोट-बड़ टोलिया बनाए-बनाए

बिनु काटे भिंटवा गड़हिया न पटिहैं
अपने खुसी से धन-धरती न बटिहैं
जनता केतलवा तिजोरिया पे लगिहैं
कि महल में बजना बजाए-बजाए

बड़ी-बड़ी कोठिया सजाए पूँजीपतिया
कि दुखिया के रोटिया चोराए-चोराए।

                                       - जमुई  खाँ आज़ाद 

Thursday, May 21, 2020

'यात्रा जो अभी पूरी नहीं हुई -जुल्मी राम सिंह यादव


     

यदि वसुधैव कुटुंबकम कोई  दोगला शब्द नहीं
तो जरा खोज कर बताना
मेरी भूख और पांवों के छालों के लिए
 तुम्हारी वर्णमाला में कोई अक्षर
और  जीभ पर  कोई शब्द है क्या
सर पर तुम्हारे अपराधों की गठरी का बोझ  लिए
मैं जा रहा हूं अपने देश
जो  मेरा होकर भी  कभी मेरा नहीं रहा
 फिर भी जा रहा हूं
क्योंकि  दिल मेरा वहां
और देह तेरे बाजार के कोठे में कैद है
जाते जाते मैंने बनाकर रख दिये हैं
 तुम्हारे लिए महल चौबारे और हरम खाने
तुम्हारी थुल थुल चर्बियों के लिए
लजीज बिरयानी और महकती हुई मेहंदी
उनके बासी और बदरंग होने के बाद
तुम्हें मेरी याद आएगी लेकिन
तब तक हिंद महासागर
 सहस्त्र मुखों में उतर कर भर उठेगा
युगों युगों  के पीक और खखार से
मैंने  रास्तों और पगडंडियों पर
बो दिया है सदी भर की थकन
और पहना दिया है अपनी सौतेली भारत माता को
अपने बच्चों एवं स्त्री का ताजा तरीन कफन
ताकि उन रास्तों से गुजरते हुए
तुम उन पर गाड़ सको
अपने सनातन अधर्म का मील का पत्थर
मैं जल से भरी नदी में
गले तक डूबा हुआ
प्यास का एक रेगिस्तान हूं
मेरा भारत महान  बर्फ की सिल्ली  पर रखी
 रेल गाड़ियों का मुर्दा बैरक ही नहीं
यह रेल की पटरियों  पर
अंतिम नींद में सोया हुआ
 युद्ध का अधूरा सफर भी है
जब विंध्य और सतपुड़ा की पर्वत मालाओं में
 बरस रहा हो भूख और चीत्कार का दावानल
और तुम्हारे उड़न खटोले से बरसाये जायें
मेरी कब्र से तोड़े गए खुशबूदार फूल
तुम अपने डांड़ीमार खून से पूछना
 इन दोनों में से ज्यादा नफे का सौदा कौन सा है
सब कुछ बदल जाने का  नाम ही मौसम है
ऐसे ही  एक दिन जब मौसम साफ होगा और जमीन नम
  बीज की तरह गाड़े गए भूख और थकन  से
 उगेंगे लोहे के  बिरवे
जो हटाएंगे धरती का रोग
और तुम्हारे महल की चमड़ियों में फंसी हुई  मैल
 इन्ही थके हुए हाथों के द्वारा धरती के पांवों में रचे जाएंगे
 अग्निरोहित सुंदर लाल  महावर


 २१.०५.२०२०