Sunday, January 22, 2017

पाब्लो नेरुदा

हमेशा
-पाब्लो नेरुदा की कविता 'आलवेज' का अनुवाद
जो भी आया मेरे सामने
कभी नहीं बना रश्क का सबब
तुम अपने कांधे पर एक आदमी
का बोझ लिये आओ
तुम अपने बालों में सैकड़ों आदमियों
को समेटे आओ
तुम अपने स्तनों और अपने पैरों के बीच
असंख्य आदमियों के चिह्नï लिये आओ
नदी की तरह आओ
जो पट गयी हो डूबे हुए आदमियों से,
जो उन्मत्त सागर से जा मिले
और समय की अनंत धारा में
विलीन हो जाये!
उन सबको वहां लाओ
जहां मैं प्रतीक्षारत हूं तुम्हारे लिये,
हम हमेशा अकेले रहेंगे
हम हमेशा मैं और तुम ही रहेंगे
इस भरी-पूरी पृथ्वी पर अकेले
हमारा जीवन शुरू करने की खातिर!
(अनुवाद-संदीप कुमार)

नजरुल इस्लाम

एक कविता 'नजरुल इस्लाम की'
मनुष्य से घृणा करके
कौन लोग कुरान, वेद, बाईबिल चूम रहे हैं !
किताबें और ग्रंथ छीन लो
जबरन उनसे
मनुष्य को मारकर ग्रंथ पूज रहा है
ढोंगियों का दल !
सुनो मूर्खो
मनुष्य ही लाया है ग्रंथ
ग्रंथ नहीं लाया किसी मनुष्य को
"न भूले देश शहीदों को" जितेन्द्र भईया, गुना-(म.प्र.

अवतार सिंह पाश

कविता
अंत में
हमें पैदा नहीं होना था
हमें लड़ना नहीं था
हमें तो हेमकुंट पर बैठकर
भक्ति करनी थी
लेकिन जब सतलुज के पानी से भाप उठी
जब काजी नजरुल इसलाम की जबान रुकी
जब लडकों के पास देखा 'जेम्स बांड
तो मै कह उठा,
चल भाई संत (संधू)
नीचे धरती पर चलें
पापों का बोझ बढ़ता जाता है
और अब हम आए हैं
हमारे हिस्से की कटार हमें दे दो
हमारा पेट हाजिर है
अवतार सिंह पाश

नज़रुल इस्लाम

बंगाली कवि क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की एक कविता
हिंदू और मुसलमान दोनों ही सहनीय है 
लेकिन उनकी चोटी और दाढ़ी असहनीय है
क्योंकि यही दोनों विवाद कराती हैं
चोटी में हिंदुत्व नहीं शायद पांडित्य है
जैसे की दाढ़ी में मुसलमानत्व नहीं शायद मौलवित्य है
और इस पांडित्य और इस मौलवित्य के चिन्हो को बालों
को लेकर दुनिआ बाल की खाल का खेल खेल रही है
आज जो लड़ाई छिड़ती है
वो हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं
वो तो पंडित और मौलवी की विपरीत विचारधारा का संघर्ष है
रोशनी को लेकर कोई इंसान नहीं लड़ा
इंसान तो सदा लड़ा गाय बकरे को लेकर
(रूद्र मंगल रचनावली प्रथम भाग पृष्ठ ७०७ )

नाजिम हिकमत

शिप्ली संग्रामी पाल राबसन
वो हमारे गीत क्यों रोकना चाहते है
शिल्पी संग्रामी पाल राबसन |
हम अपनी आवाज उठा रहे है
वो नाराज क्यों वो नाराज क्यों
नीग्रो भाई हमारे पाल राबसन |
वो डरते है जिन्दगी से , वो डरते है मौत से ,
वो डरते है इतिहास से ,
वो डरते है , राबसन |
हमारे इन कदमो से डरते hai
हमारी इन आँखों से डरते है
जनता की इस चेतना से डरते है राबसन
वो क्रान्ति के जय डमबरु से डरते है राबसन
शिल्पी संग्रामी पाल राबसन
नीग्रो भाई हमारे पाल राबसन |
.................................नाजिम हिकमत

गोरख पाण्‍डेय की कविता कुर्सीनामा

गोरख पाण्‍डेय की कविता कुर्सीनामा
1
जब तक वह ज़मीन पर था
कुर्सी बुरी थी
जा बैठा जब कुर्सी पर वह
ज़मीन बुरी हो गई।
2
उसकी नज़र कुर्सी पर लगी थी
कुर्सी लग गयी थी
उसकी नज़र को
उसको नज़रबन्द करती है कुर्सी
जो औरों को
नज़रबन्द करता है।
3
महज ढाँचा नहीं है
लोहे या काठ का
कद है कुर्सी
कुर्सी के मुताबिक़ वह
बड़ा है छोटा है
स्वाधीन है या अधीन है
ख़ुश है या ग़मगीन है
कुर्सी में जज्ब होता जाता है
एक अदद आदमी।
4
फ़ाइलें दबी रहती हैं
न्याय टाला जाता है
भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती
नहीं मरीज़ों तक दवा
जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया
उसे फाँसी दे दी जाती है
इस बीच
कुर्सी ही है
जो घूस और प्रजातन्त्र का
हिसाब रखती है।
5
कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है
कुर्सी न बचे
तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र
देश और दुनिया।
6
ख़ून के समन्दर पर सिक्के रखे हैं
सिक्कों पर रखी है कुर्सी
कुर्सी पर रखा हुआ
तानाशाह
एक बार फिर
क़त्ले-आम का आदेश देता है।
7
अविचल रहती है कुर्सी
माँगों और शिकायतों के संसार में
आहों और आँसुओं के
संसार में अविचल रहती है कुर्सी
पायों में आग
लगने
तक।
8
मदहोश लुढ़ककर गिरता है वह
नाली में आँख खुलती है
जब नशे की तरह
कुर्सी उतर जाती है।
9
कुर्सी की महिमा
बखानने का
यह एक थोथा प्रयास है
चिपकने वालों से पूछिये
कुर्सी भूगोल है
कुर्सी इतिहास है।

दो मशहूर शायरों के अपने-अपने अंदाज…


पहले मिर्ज़ा गालिब :-
*“उड़ने दे इन परिंदों को आज़ाद फिजां में ‘गालिब’*
*जो तेरे अपने होंगे वो लौट आएँगे…”*
शायर इकबाल का उत्तर :-
*“ना रख उम्मीद-ए-वफ़ा किसी परिंदे से* …
*जब पर निकल आते हैं*
*तो अपने भी आशियाना भूल जाते हैं…”*
आज पूँजीवाद में जहाँ पुराने ज़माने के रागात्मक सम्बन्ध को मुद्रा की सत्ता ने पैसे-पैसे के निकृष्टम स्वार्थो के सम्बन्ध में बदल दिया है, इकबाल का शायर इसी को दर्शाता है।

गोरख पाण्डेय

"इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब हुई थी
ख़ून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल
मतदान की"
~गोरख पाण्डेय

गोरख पाण्डेय

" ये आँखें हैं तुम्हारी 
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुन्दर 
इस दुनिया को 
जितनी जल्दी हो 
बदल देना चाहिए." ~ गोरख पाण्डेय

गोरख पाण्डेय (उसको फांसी दे दो )

गोरख पाण्डेय की बेहतरीन कविता ! (उसको फांसी दे दो )
उसको फांसी दे दो
वह कहता है उसको रोटी-कपड़ा चाहिए
बस इतना ही नहीं, उसे न्‍याय भी चाहिए
इस पर से उसको सचमुच आजादी चाहिए
उसको फांसी दे दो।
वह कहता है उसे हमेशा काम चाहिए
सिर्फ काम ही नहीं, काम का फल भी चाहिए
काम और फल पर बेरोक दखल भी चाहिए
उसको फांसी दे दो।
वह कहता है कोरा भाषण नहीं चाहिए
झूठे वादे हिंसक शासन नहीं चाहिए
भूखे-नंगे लोगों की जलती छाती पर
नकली जनतंत्री सिंहासन नहीं चाहिए
उसको फांसी दे दो।
वह कहता है अब वह सबके साथ चलेगा
वह शोषण पर टिकी व्‍यवस्‍था को बदलेगा
किसी विदेशी ताकत से वह मिला हुआ है
उसकी इस ग़द्दारी का फल तुरत मिलेगा
आओ देशभक्‍त जल्‍लादो
पूंजी के विश्‍वस्‍त पियादो
उसको फांसी दे दो

एलान / गोरख पाण्डेय

 फावड़ा उठाते हैं हम तो
मिट्टी सोना बन जाती है
हम छेनी और हथौड़े से
कुछ ऎसा जादू करते हैं
पानी बिजली हो जाता है
बिजली से हवा-रोशनी
औ' दूरी पर काबू करते हैं
हमने औज़ार उठाए तो
इंसान उठा
झुक गए पहाड़
हमारे क़दमों के आगे
हमने आज़ादी की बुनियाद रखी
हम चाहें तो बंदूक भी उठा सकते हैं
बंदूक कि जो है
एक और औज़ार
मगर जिससे तुमने
आज़ादी छीनी है सबकी
हम नालिश नहीं
फ़ैसला करते हैं ।
(रचनाकाल : 1980) ----- जनकवि गोरख पाण्डेय

गोरख पाण्डेय =क़ानून

मजदूरों पर गोली की रफ्तार से
भुखमरी की रफ्तार से किसानों पर
विरोध की जुबान पर
चाकू की तरह चलेगा
व्याख्या नहीं देगा
बहते हुए ख़ून की
कानून व्याख्या से परे कहा जायेगा
देखते-देखते
वह हमारी निगाहों और सपनों में
खौफ बनकर समा जायेगा
देश के नाम पर
जनता को गिरफ्तार करेगा
जनता के नाम पर
बेच देगा देश
सुरक्षा के नाम पर
असुरक्षित करेगा
अगर कभी वह आधी रात को
आपका दरवाजा खटखटायेगा
तो फिर समझिये कि आपका
पता नहीं चल पायेगा
खबरों में इसे मुठभेड़ कहा जायेगा

दंगा / गोरख पाण्डेय



'''1.'''
आओ भाई बेचू आओ
आओ भाई अशरफ आओ
मिल-जुल करके छुरा चलाओ
मालिक रोजगार देता है
पेट काट-काट कर छुरा मँगाओ
फिर मालिक की दुआ मनाओ
अपना-अपना धरम बचाओ
मिलजुल करके छुरा चलाओ
आपस में कटकर मर जाओ
छुरा चलाओ धरम बचाओ
आओ भाई आओ आओ
'''2.'''
छुरा भोंककर चिल्लाये ..
हर हर शंकर
छुरा भोंककर चिल्लाये ..
अल्लाहो अकबर
शोर खत्म होने पर
जो कुछ बच रहा
वह था छुरा
और
बहता लोहू…
'''3.'''
इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब हुई थी
ख़ून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल
मतदान की

इंकलाब का गीत / गोरख पाण्डेय


हमारी ख्वाहिशों का सर्वनाम इन्क़लाब है !
हमारी कोशिशों का एक नाम इन्क़लाब है !
हमारा आज एकमात्र काम इन्क़लाब है !
ख़तम हो लूट किस तरह जवाब इन्क़लाब है !
ख़तम हो भूख किस तरह जवाब इन्कलाब है !
ख़तम हो किस तरह सितम जवाब इन्क़लाब है !
हमारे हर सवाल का जवाब इन्क़लाब है !
सभी पुरानी ताक़तों का नाश इन्क़लाब है !
सभी विनाशकारियों का नाश इन्क़लाब है !
हरेक नवीन सृष्टि का विकास इन्क़लाब है !
विनाश इन्क़लाब है, विकास इन्क़लाब है !
सुनो कि हम दबे हुओं की आह इन्कलाब है,
खुलो कि मुक्ति की खुली निग़ाह इन्क़लाब है,
उठो कि हम गिरे हुओं की राह इन्क़लाब है,
चलो, बढ़े चलो युग प्रवाह इन्क़लाब है ।
हमारी ख्वाहिशों का नाम इन्क़लाब है !
हमारी ख्वाहिशों का सर्वनाम इन्क़लाब है !
हमारी कोशिशों का एक नाम इन्क़लाब है !
हमारा आज एकमात्र काम इन्क़लाब है !

कानून / गोरख पाण्डेय


लोहे के पैरों में भारी बूट
कंधों से लटकती बंदूक
कानून अपना रास्ता पकड़ेगा
हथकड़ियाँ डाल कर हाथों में
तमाम ताकत से उन्हें
जेलों की ओर खींचता हुआ
गुजरेगा विचार और श्रम के बीच से
श्रम से फल को अलग करता
रखता हुआ चीजों को
पहले से तय की हुई
जगहों पर
मसलन अपराधी को
न्यायाधीश की, गलत को सही की
और पूँजी के दलाल को
शासक की जगह पर
रखता हुआ
चलेगा
मजदूरों पर गोली की रफ्तार से
भुखमरी की रफ्तार से किसानों पर
विरोध की जुबान पर
चाकू की तरह चलेगा
व्याख्या नहीं देगा
बहते हुए खून की
व्याख्या कानून से परे कहा जाएगा
देखते-देखते
वह हमारी निगाहों और सपनों में
खौफ बन कर समा जाएगा
देश के नाम पर
जनता को गिरफ्तार करेगा
जनता के नाम पर
बेच देगा देश
सुरक्षा के नाम पर
असुरक्षित करेगा
अगर कभी वह आधी रात को
आपका दरवाजा खटखटाएगा
तो फिर समझिए कि आपका
पता नहीं चल पाएगा
खबरों से इसे मुठभेड़ कहा जाएगा
पैदा हो कर मिल्कियत की कोख से
बहसा जाएगा
संसद में और कचहरियों में
झूठ की सुनहली पालिश से
चमका कर
तब तक लोहे के पैरों
चलाया जाएगा कानून
जब तक तमाम ताकत से
तोड़ा नहीं जाएगा.....

कला कला के लिए / गोरख पाण्डेय


कला कला के लिए हो
जीवन को ख़ूबसूरत बनाने के लिए
न हो
रोटी रोटी के लिए हो
खाने के लिए न हो
मज़दूर मेहनत करने के लिए हों
सिर्फ़ मेहनत
पूंजीपति हों मेहनत की जमा पूंजी के
मालिक बन जाने के लिए
यानि,जो हो जैसा हो वैसा ही रहे
कोई परिवर्तन न हो
मालिक हों
ग़ुलाम हों
ग़ुलाम बनाने के लिए युद्ध हो
युद्ध के लिए फ़ौज हो
फ़ौज के लिए फिर युद्ध हो
फ़िलहाल कला शुद्ध बनी रहे
और शुद्ध कला के
पावन प्रभामंडल में
बने रहें जल्लाद
आदमी को
फाँसी पर चढ़ाने लिए.

समय का पहिया (कविता) / गोरख पाण्डेय


समय का पहिया चले रे साथी
समय का पहिया चले
फ़ौलादी घोंड़ों की गति से आग बरफ़ में जले रे साथी
समय का पहिया चले
रात और दिन पल पल छिन
आगे बढ़ता जाय
तोड़ पुराना नये सिरे से
सब कुछ गढ़ता जाय
पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा गले रे साथी
समय का पहिया चले
उठा आदमी जब जंगल से
अपना सीना ताने
रफ़्तारों को मुट्ठी में कर
पहिया लगा घुमाने
मेहनत के हाथों से
आज़ादी की सड़के ढले रे साथी
समय का पहिया चले

एक जादुई पल / अलेक्सान्दर पूश्किन


वो एक जादुई पल
ज्यों का त्यों आँखों में आज भी
तुम मेरे साथ, तुम मेरे सामने...
माना आज धुँधला और अस्पष्ट
पर मेरे लिए तो
अति सुन्दर, अति दुर्लभ
इन दूरियों और वर्जनाओं से
विनती करता हूँ रहम खाओ मुझपर
युग बीते तुम्हारी सींचती आवाज़ सुने
युग बीते तुम्हें सपने तक में आए
युग बीते जब क्रूर वक़्त के हाथों
छिन गई थीं तुम मुझसे
तुम जो मेरा एकान्त, मेरी साधना हो !
धुँधली पड़ती जा रही हैं
तुम्हारी मधुर आवाज़ की सरगम
अलौकिक नाकनक्श,
इन सूने उदास, अलस पलों में
खोया रहता हूँ मैं
काले उमड़ते बादलों में
कोई कल्पना नहीं, प्रेरणा नहीं
न कोई रोने, मचलने या प्यार करने को
न कोई बहाना जीने को...
दुख में डूबी पलकें
पुनः देखतीं उमड़ते बादल को
और तब अचानक
फिर वही जादुई पल आ जाता है
तुम मेरे सामने
तुम मेरे साथ...
अति सुन्दर, अति दुर्लभ !!
अँग्रेज़ी से अनुवाद : शैल अग्रवाल

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दरबारे-वतन में जब इक दिन सब जानेवाले जाएंगे,
कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा* ले जाएंगे !
ऐ ख़ाक-नशीनो, उठ बैठो, वह वक़्त क़रीब आ पहुँचा है,
जब तख़्त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे !
अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िन्दानों* की ख़ैर नहीं,
जो दरिया झूम के उठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे !
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं, सर भी बहुत,
चलते भी चलो के अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएंगे !
ऐ ज़ुल्म के मातो, लब खोलो, चुप रहनेवालो, चुप कब तक,
कुछ हश्र तो उनसे उठेगा, कुछ दूर तो ना”ले* जाएंगे !
~

निराला

वह तोड़ती पत्‍थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्‍थर।
कोई न छायादार 
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार;
श्‍याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्‍यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गयीं,
प्राय: हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्‍थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्‍यों कहा -
'मैं तोड़ती पत्थर
#निराला

रामप्रसाद बिस्मिल

महान देशभक्‍त क्रांतिकारी, काकोरी केस के शहीद रामप्रसाद बिस्मिल (11 जून) के जन्‍मदिवस पर
सरफरोशी की तमन्‍ना
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।
ऐ शहीदे-मुल्‍को-मिल्‍ल्‍त मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरे हिम्‍मत की चर्चा गैर की महफिल में है।
रहबरे राहे मुहब्‍बत रह न जाना राह में
लज्‍जते सहराने वर्दी दूरिए मंजिल में है।
वक्‍त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्‍या बताएं क्‍या हमारे दिल में है।
आज फिर मकतल में कातिल कह रहा है बार बार
क्‍या तमन्‍ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है।
खींचकर लाई है हमको कत्‍ल होने की उम्‍मीद
आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-कातिल में है।
अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है।

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

हिटलर के भारतीय संस्‍करण के भक्‍तों को ये कविता जरूर पढ़ानी चाहिये। 
एस.ए.* सैनिक का गीत / बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (अनुवादः सत्यम)
भूख से बेहाल मैं सो गया
लिये पेट में दर्द।
कि तभी सुनाई पड़ी आवाज़ें
उठ, जर्मनी जाग!
फिर दिखी लोगों की भीड़ मार्च करते हुएः
थर्ड राइख़** की ओर, उन्हें कहते सुना मैंने।
मैंने सोचा मेरे पास जीने को कुछ है नहीं
तो मैं भी क्यों न चल दूँ इनके साथ।
और मार्च करते हुए मेरे साथ था शामिल
जो था उनमें सबसे मोटा
और जब मैं चिल्लाया ‘रोटी दो काम दो’
तो मोटा भी चिल्लाया।
टुकड़ी के नेता के पैरों पर थे बूट
जबकि मेरे पैर थे गीले
मगर हम दोनों मार्च कर रहे थे
कदम मिलाकर जोशीले।
मैंने सोचा बायाँ रास्ता ले जायेगा आगे
उसने कहा मैं था ग़लत
मैंने माना उसका आदेश
और आँखें मूँदे चलता रहा पीछे।
और जो थे भूख से कमज़ोर
पीले-ज़र्द चेहरे लिये चलते रहे
भरे पेटवालों से क़दम मिलाकर
थर्ड राइख़ की ओर।
अब मैं जानता हूँ वहाँ खड़ा है मेरा भाई
भूख ही है जो हमें जोड़ती है
जबकि मैं मार्च करता हूँ उनके साथ
जो दुश्मन हैं मेरे और मेरे भाई के भी।
और अब मर रहा है मेरा भाई
मेरे ही हाथों ने मारा उसे
गोकि जानता हूँ मैं कि गर कुचला गया है वो
तो नहीं बचूँगा मैं भी।
*एस.ए. – जर्मनी में नाज़ी पार्टी द्वारा खड़ी किये गये फासिस्ट बल का संक्षिप्त नाम। उग्र फासिस्ट प्रचार के ज़रिये इसमें काफ़ी संख्या में बेरोज़गार नौजवानों और मज़दूरों को भर्ती किया गया था। इसका मुख्य काम था यहूदियों और विरोधी पार्टियों, ख़ासकर कम्युनिस्टों पर हमले करना और आतंक फैलाना।
**थर्ड राइख़ – 1933 से 1945 के बीच नाज़ी पार्टी शासित जर्मनी को ही थर्ड राइख़ कहा जाता था।

Satpal Singh Paash (पाश)

कविता - वो लोग
वो लोग जो डरते है गर्मी उमस भरे दिनों से
वो लोग जिन्हे रातों में जागना नहीं आता
जो मिट्टी में बिमार करने वाले किटाणुओं की बात करते है
और जिनके लिए पसीना हमेशा बदबू भरा रहा है
वो लोग जो कहते है तरक्की बस तरक्की
किसी भी किमत पर
जो नोट की लम्बाई से मापते है जिंदगी का कद
जो हमेशा से ही करते रहे है ईस्तमाल
हमारे हाथों को हमारे ही खिलाफ
जिन्होने कविता के पैर में डाल दी है
अपने पुरस्कारों कि चमकती बेडीयां
वो लोग जिन्होने नहीं देखें है
हमारे बच्चों के ज़रद पीले चेहरे
जो नहीं जानते है घरों को उसारना
जिनके पास हमारी भूख को छोडकर
हर चीज का इलाज है
जिनके पास खाने के लिए हमारे हाथ
और पीने के लिए है हमारा लहू
वो लोग जो रहते है
हमारी कब्रों पर रोशन महलों में
वो लोग जिनके पेट की चरबी
हमारी हड्डीयों से छीलते हुए मांस की गवाह है
वो लोग जो हमारी सूखी सख्त छातीयों पर
बिछाते है रेल-पट्टरीयों का जाल
वो लोग जिनका सुनहरा भविष्य टिका है
हमारे वर्तमान के अंधकार पर
वो लोग हमें ज़िदां रखने के लिए
बस हमें मरने नहीं देंगे

David Romano

A very delicate poem by David Romano
"If tomorrow starts without me"
If tomorrow starts without me
And I am not there to see
If the sun should rise & find your eyes
All filled with tears for me
I wish so much you wouldn't cry
The way you did today
While thinking of many thinks
We didn't get to say
If tomorrow starts without me
Please try to understand
That an angle came & called my name
And took me by the hand
And said my place was ready
In heaven far above
And I had to leave behind
All those I dearly love
But as I turned to walk away
I tear fell from my eye
From all my life, I had always thought
I didn't want to die
I have so much to live for
So much left yet to do
It seemed almost impossible
That I was leaving you
I thought of all the yesterdays
The good ones & the bad
I thought all the love we shared
And the fun we had
If I could re-live yesterday
Just even for a while
I had to say good bye & kiss you
And may be see you smile
So if tomorrow starts without me
Don't think we're apart
For every time you think of me
I am right here, in your heart

शराब

एक ही विषय पर 7 महान शायरों का नजरिया -
#मिर्ज़ा_ग़ालिब:---
"जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता जहाँ पर ख़ुदा नहीं"
#इक़बाल:
"मस्जिद ख़ुदा का घर है, कोई पीने की जगह नहीं ,
--------काफिर के दिल में जा, वहाँ पर ख़ुदा नहीं"
#अहमद_फ़राज़:
"काफिर के दिल से आया हूँ मैं ये देख कर
खुदा मौजूद है वहा भी, काफिर को पता नहीं"
#वासी:
"खुदा मौजूद हैं पुरी दुनिया में, कही भी जगह नही,
---------------तू जन्नत में जा वहाँ पीना मना नहीं"
#साक़ी:
"पीता हूँ ग़म-ए-दुनिया भुलाने के लिए अौर कुछ नही,
----------जन्नत में कहाँ ग़म है वहाँ पीने में मजा नहीं"
#फहीम_क़िदवाई :
"छोड़ो मस्जिद, जन्नत और दिलों की ये बहसे ..
शराब पीना हराम है क्या तुमको पता नही ...!
#ज़ौक़
ज़ाहिद शराब पीने से काफ़िर हुआ मैं क्यों।
क्या डेढ़ चुल्लू पानी से ईमान बह गया।।

इकबाल

उठ्ठो मेरी दुनिया के गरीबो को जगा दो
काफे उमरा(अमीरों के महल)के दरो दीवार गिरा दो।
जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी 
उस खेत के हर खोश-ए-गंदुम को जला दो।

सफ़दर हाशमी की बेहद प्रासंगिक रचना:

सफ़दर हाशमी की बेहद प्रासंगिक रचना:
''किताबें करती हैं बातें
बीते ज़माने की,
दुनिया की,इंसानों की!
आज की, कल की,
एक-एक पल की,
खुशियों की, ग़मों की,
फूलों की, बमों की,
जीत की, हार की,
प्यार की, मार की!
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!
किताबों में चिडियाँ चहचहाती हैं,
किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं!
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं,
परियों के किस्से सुनाते हैं!
किताबों में रॉकेट का राज है,
किताबों में साइंस की आवाज़ है!
किताबों का कितना बड़ा संसार है,
किताबों में ज्ञान का भंडार है!
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!''

इस लॉक्डडाउन में


इस लॉक्डडाउन में,
अकेला नही हूँ मैं।
मेरे पास किताबे है,
वे किताबें बातें करती हैं 
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
अक्सर अच्छी बाते कहना चाहती है
वे सब कुछ शेयर करना चाहती है
जो उसके दिल में है
लेकिन उसमे एक बुराई भी है
आप उनके साथ कुछ भी शेयर नहीं कर पाते
जो आपके दिल में है
किताबे जरुरी है
लेकिन वे काफी नहीं है
आपको पूर्ण मनुष्य बनने के लिए
उसके लिए हाड मांस का पुतला
जीवन के आशा से भरा हुआ
अन्याय के खिलाफ हुंकार
भरने का हौसला रखने वाले
दिल की दरकार होती है किताबो के साथ
एक क्रन्तिकारी संगठन की दरकार होती है
किताबो के साथ
जहाँ ऐसे हौसला रखने वाले लोग होते है
जिनके पास एक धड़कता दिल होता है
और आप भी शेयर कर सकते है
अपनी दिल की बात ``````उनके साथ``।


एम के आजाद

लेस्ली पिंकने हिल

उन्होंने चुपचाप उस पर हमला किया
और उसे खींच ले गये;
इतना गहरा था उनका षड्यंत्र
कि सरकार ने दिन-दहाड़े
क़ानून और व्यवस्था के जिन प्रहरियों
के हाथ उसे सौंपा था
उनको पता तक नहीं चला।
और उन लोगों ने भय से काँपते हुए
उस चिथड़ा-चिथड़ा हुई लाश को देखा
तो सिर्फ़ यही कह सके-
''हत्यारे पता नहीं कौन थे?''
इसी तरह, मेरा यह देश
चुपचाप खींचा जा रहा है
नैतिक मौत की तरफ़
हत्या की तरफ़,
नक्कारे और तुरही बजाकर नहीं,
बल्कि यह हत्या की जा रही है
कुछ अँधेरे और कुछ उजाले में–
लुके-छिपे।
लेकिन जब लाश सामने नज़र आयेगी
तब इतिहास यह नहीं कह सकेगा कि
''हत्यारे पता नहीं कौन थे?''
— लेस्ली पिंकने हिल
(काले अमेरिकी कवि, 1880-1960)

साहिर लुधियानवी की मशहूर नज़्म का दूसरा वर्ज़न जो "धर्मपुत्र" फ़िल्म में था

धरती की सुलगती छाती के
बैचेन शरारे पूछते हैं
तुम लोग जिन्हे अपना न सके,
वो खून के धारे पूछते हैं
सड़कों की जुबान चिल्लाती है
सागर के किनारे पूछते हैं -
ये किसका लहू है कौन मरा
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.
ये जलते हुए घर किसके हैं
 ये कटते हुए तन किसके है,
तकसीम के अंधे तूफ़ान में
लुटते हुए गुलशन किसके हैं,
बदबख्त फिजायें किसकी हैं
बरबाद नशेमन किसके हैं,
कुछ हम भी सुने, हमको भी सुना.
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा
किस काम के हैं ये दीन धरम
जो शर्म के दामन चाक करें,
किस तरह के हैं ये देश भगत
जो बसते घरों को खाक करें,
ये रूहें कैसी रूहें हैं
जो धरती को नापाक करें,
आँखे तो उठा, नज़रें तो मिला.
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा
जिस राम के नाम पे खून बहे
उस राम की इज्जत क्या होगी,
जिस दीन के हाथों लाज लूटे
उस दीन की कीमत क्या होगी,
इन्सान की इस जिल्लत से परे
शैतान की जिल्लत क्या होगी,
ये वेद हटा, कुरआन हटा
ऐ रहबर-ए-मुल्क-ओ-कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा.
- साहिर लुधियानवी की मशहूर नज़्म का दूसरा वर्ज़न जो "धर्मपुत्र" फ़िल्म में था

गौहर रज़ा की ''देशद्रोही'' गज़ल

गौहर रज़ा की ''देशद्रोही'' गज़ल
- गौहर रजा
धर्म में लिपटी वतनपरस्ती क्या-क्या स्वांग रचाएगी
मसली कलियाँ, झुलसा गुलशन, ज़र्द ख़िज़ाँ दिखलाएगी
यूरोप जिस वहशत से अब भी सहमा-सहमा रहता है
खतरा है वह वहशत मेरे मुल्क में आग लगायेगी
जर्मन गैसकदों से अबतक खून की बदबू आती है
अंधी वतनपरस्ती हमको उस रस्ते ले जायेगी
अंधे कुएं में झूठ की नाव तेज़ चली थी मान लिया
लेकिन बाहर रौशन दुनियां तुम से सच बुलवायेगी
नफ़रत में जो पले बढ़े हैं, नफ़रत में जो खेले हैं
नफ़रत देखो आगे-आगे उनसे क्या करवायेगी
फनकारो से पूछ रहे हो क्यों लौटाए हैं सम्मान
पूछो, कितने चुप बैठे हैं, शर्म उन्हें कब आयेगी
यह मत खाओ, वह मत पहनो, इश्क़ तो बिलकुल करना मत
देशद्रोह की छाप तुम्हारे ऊपर भी लग जायेगी
यह मत भूलो अगली नस्लें रौशन शोला होती हैं
आग कुरेदोगे, चिंगारी दामन तक तो आएगी।

गौहर राजा

दुआ
काश यह बेटियां बिगड़ जाये ं
इतना बिगड़ें के यह बिफर जाएँ
 उन पे बिफरें जो तीर ओ तेशा लिए 
 राह में बुन रहे हैं दार-ओ-रसन
 और हर अज़माइश-ए-दार-ओ-रसन
 इनको रास्ते की धूल लगने लगे
काश ऐसा हो अपने चेहरे से
आंचलो को झटक के सब से कहें
 ज़ुल्म की हद जो तुम ने खेची थी
 उस को पीछे कभी का छोड़ चुके
काश चेहरे से ख़ौफ का ये हिजाब
 यक ब यक इस तरह पिघल जाये
 तम तमा उठे यह रुख़ ए रोशन
 दिल का हर तार टूटने सा लगे
काश ऐसा हो सहमी आँखों में
 क़हर की बिजलियाँ कड़क उठें
 और माँगें यह सारी दुनिया से
एक एक कर के हर गुनाह का हिसाब
 वोह गुनाह जो कभी किये ही नहीं
और उनका भी जो ज़रूरी हैं
काश ऐसा हो मेरे दिल की कसक
 इनके नाज़ुक लबों से फूट पड़े
शाहीन धाडा और रिनू श्रीनिवासन के नाम जिन्हें शिव सेना का हमला सहना पड़ा
गौहर राजा
18.12.2012
दिल्ली

शहीदों के लिए -शशि प्रकाश

शहीदों के लिए
जिन्दगी लड़ती रहेगी-गाती रहेगी
नदियाँ बहती रहेंगी
कारवाँ चलता रहेगा, चलता रहेगा, बढ़ता रहेगा
मुक्ति की राह पर
छोड़कर साथियो, तुमको धरती की गोद में।
खो गये तुम हवा बनकर वतन की हर साँस में
बिक चुकी इन वादियों में गन्ध बनकर घुल गये
भूख से लड़ते हुए बच्चों की घायल आस में
कर्ज में डूबी हुई फसलों की रंगत बन गये
ख़्वाबों के साथ तेरे चलता रहेगा---
हो गये कुर्बान जिस मिट्टी की खातिर साथियो
सो रहो अब आज उस ममतामयी की गोद में
मुक्ति के दिन तक फिजाँ में खो चुकेंगे नाम तेरे
देश के हर नाम में जिन्दा रहोगे साथियो
यादों के साथ तेरी चलता रहेगा---
जब कभी भी लौट कर इन राहों से गुज़रेंगे हम
जीत के सब गीत कई-कई बार हम फिर गायेंगे
खोज कैसे पायेंगे मिट्टी तुम्हारी साथियो
जर्रे-जर्रे को तुम्हारी ही समाधि पायेंगे
लेकर ये अरमाँ दिल में चलता रहेगा...
शशि प्रकाश

मुक्तिबोध

अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे 
उठाने ही होंगे। 
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब। 
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार 
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें 
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक
ले जाने उसको धँसना ही होगा
झील के हिम-शीत सुनील जल में
-मुक्तिबोध ('अंधेरे में' से)

सबसे भयंकर वो दिन होगा जब…

सबसे भयंकर वो दिन होगा जब…
 सबसे भयंकर वो दिन होगा जब,
 झूठ को सत्य बताया जाएगा,
 सच बोलने की सज़ा होगी,
 ख़ामोशी को इनाम बनाया जाएगा।
सबसे भयंकर वो दिन होगा जब,
 रोटी के दाम बढ़ जाएँगे,
 मज़दूर के हाथ से काम छिनेगा,
 पर महलों में जश्न मनाए जाएँगे।
 जब फैक्ट्रियों की भट्टियाँ बुझेंगी,
 पर हथियारों के कारख़ाने जलेंगे,
 जब अनाज गोदामों में सड़ेगा,
 पर भूखे पेट फाँसी लगेंगे।
जब फसलें उगाने वाले हाथ,
 हथकड़ियों में जकड़ दिए जाएँगे,
 जब किताबों को जलाया जाएगा,
 और झूठ का परचम लहराएगा।
 जब हुक्मनामा जारी होगा—
 "बेरोज़गारी पर सवाल नहीं पूछना,
 रोटी नहीं तो भी  नारे नही लगाओ,
 भूख से लड़ो, पर आवाज़ मत उठाओ!
 जब दीवारों पर चिपकेंगे पोस्टर—
 "हड़ताल करना ग़द्दारी है,
 हक़ माँगना साज़िश है,
 और इंक़लाब की बातें आतंकवाद हैं!
 जब मंदी की मार पड़ेगी सबपर,
 पर दोषी ग़रीब ठहराए जाएँगे,
 जब मेहनत की क़ीमत घटेगी,
 पर जंग के सौदागर बचाए जाएँगे।
 जब अख़बार झूठ से भरेंगे,
 गरीबों को ही गुनहगार कहेंगे,
 इंसान को सिर्फ़ एक 
 आँकड़ा समझा जाएगा।
 जब देशभक्ति की परिभाषा,
 हथियारों से लिखी जाएगी।
 जब भीड़ भटकाई जाएगी,
 नफ़रत की आग में झोंकी जाएगी,
 जब मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में,
 रोटी की भूख भुलाई जाएगी।
मगर…
 सबसे सुन्दर वो दिन होगा जब,
 मज़दूर हाथों में झंडा उठाएगा,
 जब नफ़रत का हर क़िला ढहेगा,
 और मेहनत का ताज सजाया जाएगा।
जब हर फ़रमान को चीरकर,
 हर दमन को तोड़कर,
 मेहनत का इंक़लाब उठेगा,
 और हुकूमत को जवाब मिलेगा।
सबसे सुन्दर वो दिन होगा जब,
 मज़दूर अपनी ताक़त पहचानेगा,
 जब नारे सिर्फ़ दीवारों पर नहीं,
 बल्कि सड़कों पर गूँजेंगे।
जब सत्ता की कुर्सी डोलेगी,
 जब इंसाफ़ की सड़कों पर भीड़ उमड़ेगी,
 जब मेहनत का हक़ छीना नहीं,
 बल्कि लड़कर जीता जाएगा।
सबसे सुन्दर वो दिन होगा जब,
 भूख से बिलखते लोग नहीं होंगे,
 नफ़रत की बोली बिकेगी नहीं,
 फिर हथियार नहीं, हल चलेंगे।
 जब कारख़ाने फिर धुआँ उगलेंगे,
 मज़दूर के घर भी चूल्हे जलेंगे,
 जब हर मेहनतकश का हक़ मिलेगा,
 और उसका पसीना सोना बनेगा।
 जब सत्ता का सिंहासन काँपेगा,
 जब सड़कों पर इंक़लाब होगा,
 जब मेहनत की ताक़त पहचानी जाएगी,
 फिर कोई मंदी, कोई फ़ासीवाद,
 हमारी क़िस्मत नहीं लिख पाएगा!
 सबसे भयंकर वो दिन होगा जब,
 हम चुप रह जाएँगे…
 और सबसे सुन्दर वो दिन होगा जब,
 हम उठ खड़े होंगे!
एम के आज़ाद

नागार्जुन

साभार, नागार्जुन
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किसका अगस्त है!
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसी का पंद्रह अगस्त है
बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
गरीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है
धतू तेरी, धतू तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है।

बर्तोल्त ब्रेख्त की राह पर



किसने बनाए ये ऊँचे महल?
किसके पसीने से चमका यह पल?
कौन है जो ज़मीन जोते दिन-रात?
कौन भूखा सोए, कौन भरे अपनी थाली सौगात?

बर्तोल्त ब्रेख्त ने पूछा सवाल,
क्यों इतिहास में गुम मज़दूरों के हाल?
राजा के नाम के क़िस्से लिखे गए,
पर ईंटें रखने वाले कहाँ खो गए?

मज़दूर के हाथों ने दुनिया रची,
पर मालिक ने दौलत की गाथाएँ लिखी।
मशीनें चलीं, पर किसने चलाईं?
सड़कें बनीं, पर किसने बिछाई?

अब ये कहानी बदलनी होगी,
श्रम की ताक़त संभालनी होगी।
मज़दूर उठेगा, हक़ माँगेगा,
इंक़लाब का बिगुल बजेगा!

तुम जो सड़क पर धूल में लथपथ हो,
तुम ही असली दुनिया के रचयिता हो!
अब राजा नहीं, मज़दूर बोलेगा,
शोषण का हर क़िला डोलेगा!

एम के आजाद

मज़दूर का इश्क़ – वैलेंटाइन डे



वो चॉकलेट, फूलों की बातें करते,
हम हथौड़ा, कुदाल पकड़कर चलते।
वो ग़ज़लें, शेर, मोहब्बत गाते,
हम फ़ैक्ट्री में ख़ून-पसीना बहाते।

वैलेंटाइन उनके लिए जश्न का दिन,
हमारे लिए रोटी जुटाने की जंग।
प्यार उनके लिए गुलाबों की सौगात,
हमारे लिए अधूरी मज़दूरी की बात।

महलवालों को इश्क़ की फुर्सत है,
मज़दूर की मोहब्बत मजबूरियों में सिमट गई।
हमने भी चाहा किसी का हाथ पकड़ना,
पर उंगलियाँ औज़ारों की ज़ंजीर में उलझ गईं।

पर सुन लो मालिकों की दुनिया वालो,
मज़दूर का प्यार भी बग़ावत बनता है!
हम भी गुलाब उगाएँगे, अपने हाथों से,
जब खेत, फैक्ट्री, दुनिया अपनी होगी!
उस दिन हमारी मोहब्बत आज़ाद होगी,
कोई भूख से दम न तोड़ेगा।

तब हर दिन वैलेंटाइन होगा,
जहाँ इश्क़ और इंक़लाब साथ खिलेगा!

एम के आज़ाद

भोजपुरी क्रन्तिकारी गीत

भोजपुरी क्रन्तिकारी गीत
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शुरु भईल हक के लड़ईया, कि चला तुहूं लड़ै बरे भईया
कब तक तू सुतबा हो मुंद के नयनवां हो मूंद के नयनवां
कब तक तू ढोइबा हो सुख के सपनवां हो सुख के सपनवां
फ़ूटल बा ललकी किरिनिया, कि चला ……
शुरु भईल हक……
तोहरे पसिनवां से अन्न-धन्न सोनवां हो अन्न-धन्न सोनवां
तोहरा के चूसि-चूसि बढ़ै उनके तोनवां, हो बढ़ै उनके तोनवां
तोहके बा मुठ्ठी भर मकईया, कि चला ……..
शुरु भईल हक……
तोहरे लरिकवन के फ़ौज बनावै हो फ़ौज बनावै
उनके बनुकिया देके तोहरे पे चलावे हो तोहरे पे चलावे
जेल के बतावे कचहरिया, कि चला………
शुरु भईल हक……
तोहरे अंगुरिया पे दुनिया टिकलबा हो दुनिया टिकलबा
बखरा में तोहरे नरका परल बा हो नरका परल बा
उठ भहरावे के ई दुनिया , कि चला…..
शुरु भईल हक……
जनबल बा तोहरे खून के फ़उजिया हो खून के फ़उजिया
खेत कारखनवा के ललकी फ़उजिया हो ललकी फ़उजिया
तोहके बोलावे दिन रतिया, कि चला…..
शुरु भईल हक……
एक कबि

नरेन्द्र कुमार

So natural happiness
On your blossoming young face
so natural smile 
on your pink young lips
you are on journey
with enthusiasm and passion
we old generation
far away from you
wishing for you
to get strength of our experience
and cary on your journey
for highest pick of humanity
Passing through deep forest
rivers and see of humanity
we will wait, wait and wait
on shore of ocean
for your passing march.
Good by daughters!
Good by sons!
Good by comrades!
and good by friends!

कवि की लेखनी


जिस कवि की लेखनी में,
मेहनत का रंग न हो,
जो अन्याय के ख़िलाफ़,
अपनी आवाज़ बुलंद न करे,
ऐसे कवि को त्याग दो,
उसकी कविताओं को नकार दो।

जिस कवि की नज़रों में,
विज्ञान का प्रकाश न हो,
जो अंधविश्वास के तिमिर में,
सच का मार्ग न दिखाए,
ऐसे कवि को त्याग दो,
उसकी कविताओं को नकार दो।

जिस कवि का कंठ,
सत्ता के समक्ष मौन हो,
जो शासकों के अत्याचारों के ख़िलाफ़,
एक शब्द भी न बोले,
ऐसे कवि को त्याग दो,
उसकी कविताओं को नकार दो।

कलम उठाओ, कवि,
और लिखो ऐसे गीत,
जो मज़दूरों के हाथों को,
और वैज्ञानिकों के दिमागों को,
नई दिशा दें।

कलम उठाओ, कवि,
और लिखो ऐसे बोल,
जो अंधविश्वास की बेड़ियों को तोड़ें,
और सच का सूरज उगाएँ।

कलम उठाओ, कवि,
और लिखो ऐसे शब्द,
जो सत्ता के अहंकार को चूर करें,
और जनता की आवाज़ बनें।

कवि वो नहीं,
जो सिर्फ़ शब्दों का जाल बुने,
कवि वो है,
जो दिलों को छुए,
और सोच को बदले।

कवि वो नहीं,
जो सिर्फ़ वाहवाही लूटे,
कवि वो है,
जो सच का साथ दे,
और झूठ का पर्दाफाश करे।

कवि वो नहीं,
जो डर से चुप रहे,
कवि वो है,
जो अन्याय के ख़िलाफ़,
अपनी आवाज़ उठाए।
 
एम के आज़ाद

जुनून का इंक़लाब


सपनों का पीछा करना,
उन्हें मुठ्ठी में भींचकर रखना,
न हारना, न झुकना,
यह जुनून माँगता है!

जब रोटी से बड़ी लड़ाई हो,
जब इन्साफ़ की राह दिखाई हो,
जब मज़दूर के हाथ खाली हों,
फिर भी इंक़लाब की तैयारी हो,
तो हर क़दम, हर साँस,
जुनून माँगता है!

अपनी ही कमजोरियों से लड़ना,
टूटकर भी दुबारा खड़ा होना,
भीड़ में अकेले सच कहना,
सत्ता से आँखें मिलाना,
सत्य की लौ जलाए रखना,
यह जुनून माँगता है!

जब दुनिया कहे— “समझौता कर लो”,
जब ताक़त कहे— “चुप रहो”,
तब ग़ुलामी की ज़ंजीरें तोड़कर,
अपना हक़ छीनने का हौसला रखना,
जुनून माँगता है!

झुर्रियों से भरा चेहरा सही,
पर इरादे फिर भी जवान हों,
साँसों में आख़िरी आग तक,
हर अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ हो,
हर मज़दूर के लिए बराबरी की चाह हो,
तो यह जुनून नहीं, इंक़लाब है!

एम के आज़ाद

Narendra Kumar

खबर जो थी नहीं
खबर जो बनायी गयी
बुद्ध और गांधी के सत्य और अहिंसा का 
ढोल पीट कर 
जो युद्धोन्माद फैला रहे हो
इस आग की लपट में
वे भी जलेंगे जो
अपने सुरक्षित भविष्य पर
इठला रहे हैं
झूठ की फसल लहलहाने दो
अपने ही नशे में
दुर्घटनाग्रस्त होगी फासीवादी ताकतें!

कामरेड, तुम याद आते हो


काश कि तुम भी
देख सकते, मेरे कामरेड,
मेरे ख़्वाबों की टूटी तस्वीरें,
तो जान पाते
कि किस क़दर
बिखरा हूँ मैं
तुमसे बिछड़ने के बाद।

हमने संग चलकर
मज़दूरी के पत्थरों पर
क्रांति के ख्वाब बूने थे
हमने अपने लहू से
आंदोलन की फसल सींची थी
इस उम्मीद के साथ कि
इन्साफ़ की इबारत लिखेंगे 
पर अब…

यह शहर अजनबी लगता है,
इसकी गलियाँ  सुनसान हैं
शहर के नुक्कड़ों पर
तुम्हारी आवाज़ की गूँज नहीं,
मुट्ठियों की ललकार नहीं,
सिर्फ़ झुकी हुई पीठें हैं,
सिर्फ़ बंधी हुई बेड़ियाँ हैं,
और सत्ता की चमकती ज़ंजीरें

पर कामरेड, ये अंत नहीं —
हम फिर मिलेंगें, फिर लड़ेंगे,
फिर से लाल परचम लहराएँगे,
और जब अगली बार मिलेंगे,
तो सिर्फ़ ख़्वाब नहीं होंगे—
इन्कलाब भी होगा!

एम के आज़ाद

इंक़लाब की ये मुट्ठियाँ

इंक़लाब की ये मुट्ठियाँ
जुल्म के खिलाफ उठी ये मुट्ठियाँ,
जी करता है तेरा हाथ चूम लूं।

कामरेड, तू मेरे दिल के करीब है,
कामरेड, तू मुझे बहुत अजीज है।
तेरी आवाज़ में इंक़लाब का शोर है,
तेरी आँखों में जलता हुंकार का नूर है।

तेरे क़दमों की आहट से कांपती हुकूमत,
तेरी साँसों में उठता बग़ावत का सूर है।
हाथों में छाले, दिल में शोले,
रास्ते कठिन, मगर हौसले बोले।

जो रोटी छीने, जो हक़ दबाए,
उनके ख़िलाफ़ ये जंग ना रुक पाए।
मज़दूर के पसीने का हिसाब होगा,
हर मेहनतकश का जवाब होगा।

इंक़लाब की चिंगारी शोला बनेगी,
पूंजी की हर सल्तनत ढहने लगेगी।
आ, साथ चलें, ये सौगंध खाएँ,
ज़ुल्म का हर किला ध्वस्त कर जाएँ।

कामरेड, ये जंग हमारी ज़िंदगी है,
कामरेड, तेरी दोस्ती ही बंदगी है!
एम के आज़ाद

ज़िंदगी या बेड़ियाँ?


तू जिसे ज़िंदगी समझता है,
वो तेरी गुलामी है प्यारे।
जिसमें संघर्ष की ज्वाला न हो,
वो ज़िंदगी नहीं, बस एक बेड़ी है प्यारे!
तेरे पसीने से महलों की नींव रखी गई,
तेरी हड्डियों पर दौलत की ईंटें जमीं,
पर तेरा घर आज भी अंधेरे में डूबा,
तेरी मेहनत की रौशनी कहीं और बसी।
तू जिसे तक़दीर कहकर सहता है,
वो तेरे अधिकारों की लूट है,
तेरी चुप्पी ने ज़ालिम को हिम्मत दी,
अब आवाज़ उठाना ज़रूरी है!
मेरी आँखों में देख मेहनत की बेबसी,
इंसाफ़ के बिना कुछ भी सुहाना नहीं।
हमने चिंगारियाँ सहेजकर रखी हैं,
जब आग भड़केगी, तो इन्क़लाब बनेगी!
उठ, कि अब चिंगारी को शोला बनाना है,
उठ, कि अब बेड़ियों को पिघलाना है,
तेरे हाथों में है बदलाव की ताक़त,
तुझे अपना इतिहास दोहराना है!
एम के आज़ाद

जुल्मीरामसिंह यादव

।।उनकी देश भक्ति।।
जन को मारकर जनतंत्र को प्रणाम करना
यह मां को मारकर बाप को सलाम करना है
देशभक्ति नहीं 
फिर इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता
कि ये कत्लगाहें किसी राष्ट्र ध्वज की बेबस परछाइयों के नीचे खड़ी हैं
या किसी सुमधुर राष्ट्रगान की
अदृश्य सिसकियो के बीच
उनका देश
चंद कागज के टुकड़ों पर स्याह रेखाओं में कैद
बनते बिगड़ते एक नक्शे से चलकर
कुछ गज कपड़ों के स्पंदन हीन झंडों में खो जाता है परंतु मेरा यह देश कोटि कोटि खुश्क आंसुओं का
एक लय में लिपटकर
इंसानी खुशबू से महकते
फूलों की घाटियों में बदल दिया जाने का
खुली आंखों से देखे गए
जिंदा सपनों का सच है
उनके लिए भारत माता शब्दों का एक शिकारगाह है जिसमें ध्वनि तो है लेकिन अर्थ नहीं
जिसके चारों अंधेरे बुर्ज पर मृगमरीचिका
धर्म के नाम पे अधर्म की नंगी तलवार लिए खड़ी है और आतुर है यह देखने के लिए
कि कब मां का एक पुत्र
बारूद में बदलकर दूसरे के सीने में उतर जाता है
देश सिर्फ जमीन का एक टुकड़ा भर नहीं होता
जो राजा के दौड़ते घोड़ों के टापो से जन्म लेता है
देश लाखों लाख दिलों को अपनी छाती से लगाए
एक जीवित देह होता है
तब भी क्या यह कहने को शेष रह जाता है
कि लहूलुहान दिल के
मृत्यु की नदी में डूब जाने पर
देश जो कि एक जिंदा देह है
उसे लाश बनकर नदी में उतराने से
रोका नहीं जा सकता
इसलिए एक छोटे से भी दिल को
तोड़ देने का मतलब होता है
उतने ही एक छोटे से हिस्से को
हमेशा हमेशा के लिए देश के नक्शे से मिटा देना उनके लिए किसान एक देश नहीं है
वह सिर्फ अन्न और सैनिकों की पौध तैयार करने वाली
किराये की एक सरोगेसी कोख है
जिसे प्रसव के बाद देश के नक्शे में जगह पाने के लिए दो पैरों की नहीं एक रस्सी के फंदे की जरुरत पड़ती है वर्णवाद के कोढ़ से बजबजाती जिस मूर्ति पर तुम राष्ट्रवाद का सुगंधित केसरिया टीका मलकर
उसकी प्राण प्रतिष्ठा करने की कोशिश कर रहे हो इससे उसमें देवत्व का वरण नहीं
दुर्गंध का ही वरण होगा
जब जब धनासुर बकासुर का मुकुट पहनकर धरतीपुत्रों का गर्दन मरोड़ रहा होता है
तब उनके पिलाए छठी के दूध का
कर्ज उतारने के लिए
हे डफालिये तुम उसके ड्योढ़ी पर
झूठी देशभक्ति की मोटी चमड़ी से बनी अपनी डफली और जोर जोर से बजाना शुरु कर देते हो
ताकि उनकी चीख कहीं बाहर निकल कर
जनता के दुश्मनों की गले की तलवार ना बन जाए जंगे आजादी में
जब भारत माता की जय कहने का मतलब
दुश्मनों की गोलियों में
अपने नाम का अंतिम शब्द लिखना होता था
उस समय वे अपनी देसी उॅगलियों से
अंग्रेजी चिलम में जाफरानी खुशबू भर रहे थे
और अब सत्ता की पंजीरी लूटने के लिए
भारत माता के नाम पर
दहशतगर्दी का नया तालिबानी हथियार गढ़ रहे हैं समानता के विरुद्ध समरसता का नकली दूध पिलाने वाले स्वदेशी मिलावटखोर
भगत सिंह के न्याय एवं समानता के विचारों की हत्या कर
शहीद-ए-आजम को भी बुद्ध की तरह
विष्णु का पच्चीसवा अवतार बता कर
अपने हाथों की गढ़ी हुई निर्जीव मूर्तियों में
तब्दील कर देना चाहते हैं
धान के खेतों में पानी में गड़ी
वह जो मांग में सिंदूर की जगह
अपनी भूख को पहने धरती को सुहागिन बना रही है वह कुम्हार जो मिट्टी में पानी की जगह
अपनी देह का सूरज गूॅथ कर
रोशनी के दिए गढ़ रहा है
वह किसान जो जुए के दाएं हिस्से में
बैल और ईश्वर की अनुपस्थिति की परवाह किए बिना बाएं हिस्से को अकेले ही खींच कर
पसीने का रक्तबीज बो रहा है
माटी के माधव तो उनसे माटी की महक मत पूछ
देश भक्ति की बात ना कर
देशभक्ति का मतलब होता है संपूर्ण जनता का
सम्मान एवं समानता हक और न्याय
न कि दम घुटती हवा में तैरती
नपुंसक मिथ्या मैथुन की कल्पकथा
@जुल्मीरामसिंह यादव

जब फुर्सत मिले, क्रांति की बात करना


जब फुर्सत मिले, तो मुझसे बात करना,
पर सिर्फ़ इश्क़ नहीं, इंक़लाब की बात करना।
जब दुनिया की ज़ंजीरें तुम्हें कसने लगें,
तो मज़दूरों के हक़ की बात करना।
मेरे हाथों की लकीरों में मेहनत की धूल है,
पर इन्हीं में छुपे हैं सपने बराबरी के।
मैं फैक्ट्री की मशीनों में उलझा हूँ,
पर मेरा दिल अब भी आज़ादी की धड़कन है।
धुआँ उगलती चिमनियों के बीच भी,
तेरी मुस्कान बग़ावत की लौ जलाती है।
मैं मज़दूर हूँ, मेरा इश्क़ भी संघर्ष की तरह बहता है,
न कोई शानो-शौकत, न महंगे तोहफ़े,
बस हथेलियों की दरारों में
इंक़लाब की एक नई दुनिया सजाने का सपना है।
जहाँ इश्क़ अमीरों की जागीर न हो,
जहाँ हर हाथ को रोटी और हर दिल को सुकून मिले।
जहाँ तुम भी खुली हवा में साँस ले सको,
जहाँ मेरा इश्क़ और मेरी क्रांति, दोनों मुकम्मल हों!
*एम के आज़ाद*

नरेंद्र

रोहित वेमुला को श्रधांजली और उसके के अंतिम पत्र के जवाब में-------
तुमसे असहमत हूँ 
मेरे दोस्त !
फिर भी तेरे साथ हूँ
तुम्हारी इस अंतिम यात्रा में
गुनाहगार कैसे तुमने
खुद को मान लिया
यदि गुनाहगार मानना ही था
तो हमारी पीढी को मान लेते
जिसने तुम्हे इस दुनिया में लाने से पहले
नहीं गढ़ सका ऐसी दुनिया
जहाँ सवेन्दनाओं और प्यार से भरा
तुम्हारा मन सकून पा सके.
तुम तो अभी युवा थे
जीवन के सौंदर्य और संभावनाओं से भरपूर
हम सभी हादसों की दुनिया में ही जीते हैं
हादसों को इतना बुरा क्यों मान लिया ?
उसी से तो ताकत पाता हूँ
जीने का, लरने का, जूझने का
हादसे हमारे जीवन का हिस्सा हैं मेरे दोस्त !
जैसे हादसों के बीच जन्मे तुम
तब भी मेरे जीवन का हिस्सा थे
और आज भी हादसे के बाद
तुम मेरे जीवन का हिस्सा हो.
यदि हालात से इतने ही दुखी थे तो
अपनी यात्रा की दिशा बदल लेते
उस दिशा में चल परते
जहाँ तुम्हारे ही शब्दों में
हादसों के संयोग से जन्मे
करोरों लोग
हर पल हादसों की संभावनाओं के बीच
इस सितारों से भरी दुनिया के नीचे
एक और दुनिया गढ़ने में लगे रहते हैं .
यकीन मानो मेरे दोस्त
सितारों की दुनिया की ऊँचाई से
कई गुना विस्तृत है उस दुनिया का कैनवास
तुम्हें तो वहां होना था साथी
उनके वीरान जीवन में
भावनाओं , सवेंदनाओं और जदोजहद का
रंग भरने के लिए.
------नरेंद्र