Sunday, January 22, 2017

नज़रुल इस्लाम

बंगाली कवि क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की एक कविता
हिंदू और मुसलमान दोनों ही सहनीय है 
लेकिन उनकी चोटी और दाढ़ी असहनीय है
क्योंकि यही दोनों विवाद कराती हैं
चोटी में हिंदुत्व नहीं शायद पांडित्य है
जैसे की दाढ़ी में मुसलमानत्व नहीं शायद मौलवित्य है
और इस पांडित्य और इस मौलवित्य के चिन्हो को बालों
को लेकर दुनिआ बाल की खाल का खेल खेल रही है
आज जो लड़ाई छिड़ती है
वो हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं
वो तो पंडित और मौलवी की विपरीत विचारधारा का संघर्ष है
रोशनी को लेकर कोई इंसान नहीं लड़ा
इंसान तो सदा लड़ा गाय बकरे को लेकर
(रूद्र मंगल रचनावली प्रथम भाग पृष्ठ ७०७ )

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