काश कि तुम भी
देख सकते, मेरे कामरेड,
मेरे ख़्वाबों की टूटी तस्वीरें,
तो जान पाते
कि किस क़दर
बिखरा हूँ मैं
तुमसे बिछड़ने के बाद।
हमने संग चलकर
मज़दूरी के पत्थरों पर
क्रांति के ख्वाब बूने थे
हमने अपने लहू से
आंदोलन की फसल सींची थी
इस उम्मीद के साथ कि
इन्साफ़ की इबारत लिखेंगे
पर अब…
यह शहर अजनबी लगता है,
इसकी गलियाँ सुनसान हैं
शहर के नुक्कड़ों पर
तुम्हारी आवाज़ की गूँज नहीं,
मुट्ठियों की ललकार नहीं,
सिर्फ़ झुकी हुई पीठें हैं,
सिर्फ़ बंधी हुई बेड़ियाँ हैं,
और सत्ता की चमकती ज़ंजीरें
पर कामरेड, ये अंत नहीं —
हम फिर मिलेंगें, फिर लड़ेंगे,
फिर से लाल परचम लहराएँगे,
और जब अगली बार मिलेंगे,
तो सिर्फ़ ख़्वाब नहीं होंगे—
इन्कलाब भी होगा!
एम के आज़ाद
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