Thursday, May 21, 2020

'यात्रा जो अभी पूरी नहीं हुई -जुल्मी राम सिंह यादव


     

यदि वसुधैव कुटुंबकम कोई  दोगला शब्द नहीं
तो जरा खोज कर बताना
मेरी भूख और पांवों के छालों के लिए
 तुम्हारी वर्णमाला में कोई अक्षर
और  जीभ पर  कोई शब्द है क्या
सर पर तुम्हारे अपराधों की गठरी का बोझ  लिए
मैं जा रहा हूं अपने देश
जो  मेरा होकर भी  कभी मेरा नहीं रहा
 फिर भी जा रहा हूं
क्योंकि  दिल मेरा वहां
और देह तेरे बाजार के कोठे में कैद है
जाते जाते मैंने बनाकर रख दिये हैं
 तुम्हारे लिए महल चौबारे और हरम खाने
तुम्हारी थुल थुल चर्बियों के लिए
लजीज बिरयानी और महकती हुई मेहंदी
उनके बासी और बदरंग होने के बाद
तुम्हें मेरी याद आएगी लेकिन
तब तक हिंद महासागर
 सहस्त्र मुखों में उतर कर भर उठेगा
युगों युगों  के पीक और खखार से
मैंने  रास्तों और पगडंडियों पर
बो दिया है सदी भर की थकन
और पहना दिया है अपनी सौतेली भारत माता को
अपने बच्चों एवं स्त्री का ताजा तरीन कफन
ताकि उन रास्तों से गुजरते हुए
तुम उन पर गाड़ सको
अपने सनातन अधर्म का मील का पत्थर
मैं जल से भरी नदी में
गले तक डूबा हुआ
प्यास का एक रेगिस्तान हूं
मेरा भारत महान  बर्फ की सिल्ली  पर रखी
 रेल गाड़ियों का मुर्दा बैरक ही नहीं
यह रेल की पटरियों  पर
अंतिम नींद में सोया हुआ
 युद्ध का अधूरा सफर भी है
जब विंध्य और सतपुड़ा की पर्वत मालाओं में
 बरस रहा हो भूख और चीत्कार का दावानल
और तुम्हारे उड़न खटोले से बरसाये जायें
मेरी कब्र से तोड़े गए खुशबूदार फूल
तुम अपने डांड़ीमार खून से पूछना
 इन दोनों में से ज्यादा नफे का सौदा कौन सा है
सब कुछ बदल जाने का  नाम ही मौसम है
ऐसे ही  एक दिन जब मौसम साफ होगा और जमीन नम
  बीज की तरह गाड़े गए भूख और थकन  से
 उगेंगे लोहे के  बिरवे
जो हटाएंगे धरती का रोग
और तुम्हारे महल की चमड़ियों में फंसी हुई  मैल
 इन्ही थके हुए हाथों के द्वारा धरती के पांवों में रचे जाएंगे
 अग्निरोहित सुंदर लाल  महावर


 २१.०५.२०२०

Sunday, May 17, 2020

मैं एक कश्मीरी हूँ -विनय शर्मा

"मैं एक 'कश्मीरी' हूँ।
टोपी उतार दूँ तो मज़हब बदलेगा मेरा लेकिन तकदीर नहीं,
अपने घर में मारा गया हूँ, अपने घर से ही बाहर निकाला गया हूँ। 

अपनों को मरते देखा है और उनकी याद में खुदको भी तड़पते देखा है,
इस जन्नत में पैदा होकर भी 'इंसानियत', 'जमूरियत' और मेरी इस 'कश्मीरियत' को नरक बनते देखा है।"

गर लौट सका तो

*गर लौट सका तो जरूर लौटूंगा,*
*तेरा शहर बसाने को।*

*पर आज मत रोको मुझको,* *बस मुझे अब जाने दो।।*

*मैं खुद जलता था*
*तेरे कारखाने की भट्टियां जलाने को,*

मैं तपता था*
*धूप में तेरी अट्टालिकायें बनाने को।*

*मैंने अंधेरे में खुद को रखा,*
*तेरा चिराग जलाने को।*

*मैंने हर जुल्म सहे*
*भारत को आत्मनिर्भर बनाने को।*

*मैं टूट गया हूँ समाज की बंदिशों से।*
*मैं बिखर गया हूँ जीवन की दुश्वारियों से।*

*मैंने भी एक सपना देखा था*
 *भर पेट खाना खाने को।*

*पर पानी भी नसीब नहीं हुआ*
*दो बूंद आँसूं बहाने को।*

*मुझे भी दुःख में मेरी माटी बुलाती है।*
*मेरे भी बूढ़े माँ-बाप मेरी राह देखते हैं।*

*मुझे भी अपनी माटी का कर्ज़ चुकाना है।*
*मुझे मां-बाप को वृद्धाश्रम नहीं पहुंचाना है।*

*मैं नाप लूंगा सौ योजन पांव के छालों पर।*
*मैं चल लूंगा मुन्ना को  रखकर कांधों पर।*

*पर अब मैं नहीं रुकूँगा*
*जेठ के तपते सूरज में।*

*मैं चल पड़ा हूँ अपनी मंज़िल की ओर।*

*गर मिट गया अपने गाँव की मिट्टी में*
*तो खुशनसीब समझूंगा।*

*औऱ गर लौट सका तो जरूर लौटूंगा,*
*तेरा शहर बसाने को।*

*पर आज मत रोको मुझको, बस मुझे अब जाने दो।।*

*भारत की पलायन करती अर्थव्यवस्था*
*यानी मज़दूरों को सादर समर्पित...!*

 विनय कुमार

Wednesday, May 13, 2020

' कम्युनिस्टों की लगायी आग ! '

' कम्युनिस्टों की लगायी आग ! '

कम्युनिस्टों का दोष  है
वे डरते नहीं हैं
वे पढ़ते भी बहुत हैं 
इतिहास, दर्शन, साहित्य-संस्कृति-कला, विज्ञान
यानी हर तरह के ज्ञान पर
होता है उनका अधिकार
लिखते हैं अविराम, बोलते हैं धाराप्रवाह
तर्क वितर्क तो वे इस तरह करते हैं      कि जैसे
आप चलते जाओ  चलते जाओ मीलों
धूसर सूखे चिटके छिटके चट्टानों पर
और अचानक हो जाओ अवाक्
पाकर हठात् 
एक क्षुद्र छेद से अपरिमित वेग से निकलता दूधिया जल-प्रपात !

पर वे इसी सब में मगन नहीं रहते
उनके भीतर एक उद्दाम वाम उमड़ता घुमड़ता होता है
जो किसी बाज़ की तरह अपने गोपन से
कभी भी निकल पड़ने को उद्धत रहता है
वे बड़ी से बड़ी चुनौती को पटकनी देने की खातिर
ताल ठोक कर खड़े हो जायेंगे     आप उन्हें
जनता के किसी भी संघर्ष में आगे ही आगे पायेंगे !
उनमें अपार धैर्य भी होता है
वे अकारण प्रदर्शन नहीं करते अपने शौर्य का
वे आंकते रहते हैं खतरों को
और उनके नासूर नहीं बन जाने तक
चौकन्ना करते रहते हैं खतरों से अपनी जनता को 
अंततः बचा नहीं रह जाता जब कोई चारा
वे टूट पड़ते हैं सबक़ सिखाने अत्याचारी सत्ता को !

हां, पर इन दिनों
कम्युनिस्टों में यह ओज कहां रह गया है
वे तो जैसे बचे रह गये हों किसी शुष्क पाट की तरह
जिससे गंगा का बहुतेरे पानी बह गया है
वे आये दिन एक-दूसरे से
अमीबा की तरह खंड-खंड टूट रहे हैं
अपने ही अवसरवादी कारणों से
बड़े संघर्षों में उतरने में उनके पसीने छूट रहे हैं
विरोधियों के कैम्प से फतवा भी जारी हो चुका है :
' कम्युनिस्ट तो अब बीते इतिहास के भाग हैं ! '

पर सत्ता है कि मानती ही नहीं 
विद्रोह की हर चिंगारी उठती देख 
वह आज भी चीख उठती है :
' यह तो कम्युनिस्टों की ही लगायी आग है ! '

                                                       - सुमन्त
Sumant Sharan के फेसबुक वॉल से..........;

Tuesday, May 12, 2020

मजदूरों का देश



किस देश जा रहे हो तुम,
बैगों में भर भूख की थैलियां,
हांथों से पोछते, माथे की दरकती लकीरें,
अपने पैरों से घुमाते,  
जिंदगी के कठोर ठंडे पेडल,
बोल साथी, किस देश जा रहे हो तुम।

किस देश जा रही हो तुम,
गोद में भर अपने बच्चों का भविष्य, भूत, वर्तमान,
मुठ्ठी में भर कर कुछ बचे - बसाए अरमान,
लाचारी के बैक सीट पर बैठ कर
किस देश जा रही हो साथी।

कहां है तुम्हारा देश नक्शे पर?
तुम्हारी राष्ट्रीयता क्या है भला?

तुमने आज तक इनके मकान, कारखाने, ऑफिस, स्कूल, यूनिवर्सिटी, अ‌स्पताल और सड़क बनाए हैं,
तुमने ही बनाए हैं,
इनके आराम  कमरे,
जहां लेट आज
 देख रहा है समाज तुम्हारा तमाशा,
"ब्रेड" को असंवेदनशील दातों से दबाते हुए।
और बनाया है तुम्हींने इनका देश,
जिसपे यह दंभ भरते हैं, राष्ट्रवाद का।

कब तक ढूंढोगे साथी, 
तुम अपना देश, शहर, गांव, घर....?
कब तक यूं ही अरामखोर विद्वानों के फलसफे सुनते रहोगे तुम?

अब वक़्त है,  
लड़ लो तुम,
ख़ुद गढ़ लो तुम, 
एक नया समाज, अपने लिए।

 तिजु भगत

#LockdownMassacres

बिखरता , टूटता संसार लेकर



दिलों में  दुखों का  अंबार लेकर
बिखरता ,  टूटता  संसार  लेकर ।

निकलने को हुए मज़बूर फिर से
भटकती  ज़िन्दगी  दुश्वार लेकर ।

बहुत आसाँ है ,मेरी छत का प्लास्टिक
उड़ा  दे , छोटी  एक  बयार लेकर ।

पुरानी ज़िंदगी अब क्या बुनेंगे
साँसों के धागे, तार - तार  लेकर  !

सफ़र में चल पड़े तो चल पड़े हम
बाल- बच्चे सहित , परिवार लेकर ।

ये कैसे लोग सर पर चढ़ गए हैं
नए भगवानों  का  अवतार लेकर !

सिर्फ़ मक्कारी और झूठ-धोखा
करें क्या ऐसी हम सरकार लेकर !

हमें मालूम है , बहलाएगा फिर
नया जुमला,फिर एक बार लेकर ।

जागोsss...! और जगाए रक्खो
आँखों  में  सपने  बेकरार  लेकर ।

ग़ज़ल  की  नई  है  ज़मीन  यारो
'कमल' गाओ नए अशआर लेकर ।

            ----  आदित्य कमल

Monday, May 11, 2020

मार्क्स की कविता : जीवन-लक्ष्य


कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफानी मन को यह स्वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिये एक महान ऊँचा लक्ष्य
और उसके लिए उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम ।
ओ कला ! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल !
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बाँध लूँगा मैं!
  • आओ,
हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्योंकि-
छिछला, निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन जीवन
हमें स्वीकार नहीं।
हम, ऊँघते कलम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे ।
हम-आकांक्षा, आक्रोश, आवेग, और
अभिमान में जियेंगे !
असली इन्सान की तरह जियेंगे ।

Saturday, May 9, 2020

दर्द - तेजू भगत

दर्द

मेहसूस किया मैंने कल,
दर्द को बहुत करीब से,
अधमरे चेहरे पे, अभाव बन के उभरते हुए,
खुरदुरी हथेली से, बोझ बनके चिपकते हुए,
सख्त पड़ चुके एड़ियों में बेबसी बन के चुभते हुए,
छिल गए घुटनों से अनिश्चितता बन के रिस्ते हुए,
धस चुके पेट को, भूख बन के कुरेदते हुए,
थक चुके शरीर को, " विकाश" बन के रौंदते हुए,

दर्द मनों ठहर सा गया था कल,
मेरे आंखों के सामने, जम सी गई थी सभी संवेदनाएं,
उस पल सब कुछ रुक सा गया था,
और फिर देखा मैंने
 इस ववस्था के चीथड़े  में लिपटे,
कुछ लोग, चले जा रहे थे,
अपने अपने घर की ओर,
एक अनवरत और अंतहीन शून्य की ओर,
दर्द से तरबतर।

जमाना बदलेगा ...../ आदित्य कमल


कहता है इतिहास , ज़माना बदलेगा
टूटेगा  हर  पाश , ज़माना  बदलेगा

सदियों से संघर्षों का दस्तूर रहा है
और हार में छिपा , जीत का नूर रहा है
गाओ मिलकर साथ , ज़माना बदलेगा

एक क़दम ही सही मगर वो क़दम बढ़ाओ
एक कड़ी ही सही मगर उसको चटकाओ
मंज़िल होगी पास , ज़माना बदलेगा

बनता है इतिहास सतत बदलावों से ही
नए विजय पाते हैं द्वंद्व  के घावों  से  ही
तेज़  करो अहसास , ज़माना  बदलेगा

हमने रूस को बदला था, था चीन हमारा
और हम्हीं ने  धरती पर था स्वर्ग उतारा
पेरिस  के  कम्यून से उठा था जो नारा
इंकिलाब की आज भी ज़िंदा है वो धारा
जीत का है विश्वास , ज़माना बदलेगा
टूटेगा  हर  पाश , ज़माना  बदलेगा  ।

                    ------          आदित्य कमल
    ( ' कठिन समय है भाई '  से )