क्या है बेहतर, अपनों से घिरा होने से?
कॉमरेड, वो दिन याद आते हैं,
जब साथ बिताए थे लम्हे,
जब साथ देखे थे हमने सपने,
जब हमने संघर्ष के बीज बोए थे,
जब सपनों को हथियार बनाया था,
जब इंक़लाब की लौ जलाई थी।
वो गलियाँ, वो नुक्कड़, वो चाय की दुकानें,
वो यादें, वो बातें, वो हंसी के तराने
वो बहसें, वो नारे, वो जोशीले तराने।
जहाँ हर सवाल एक हथौड़ा था,
जो शोषण की दीवारों पर चोट करता था।
भूलेंगे नहीं वो वक़्त, वो जज़्बा, वो आग,
जो धधकती थी दिलों में, इंकलाब की राह पर।
हमने देखा था वो सपना,
जहाँ कोई भूखा न सोए, कोई बेघर न रहे,
जहाँ हर हाथ को उसका हक़ मिले,
जहाँ सब बराबर हों, कोई बेबस न रहे,
जहाँ इंसान को इंसान समझा जाए।
आज भी वो आग बुझी नहीं,
आज भी हमारे सपने ज़िंदा हैं,
हर मज़दूर के थके हाथों में,
हर किसान की सूखी ज़मीन में,
हर औरत की बेड़ियों में,
हर बच्चे की भूखी आँखों में।
ये यादें, ये सपने, ये हमारी ताक़त हैं,
इन्हें हम हथियार बनाएँगे,
इन्हें हम इंक़लाब की मशाल बनाएँगे।
कॉमरेड, फिर मिलेंगे उसी मोर्चे पर,
वो चिंगारी, जो हमने जलाई थी मिलकर,
आज फिर दहकेगी, शोला बनके।
फिर दोहराएँगे वो सपने, वो गीत, वो नारे,
और लिखेंगे नया इतिहास,
जहाँ राज़ करेगा मज़दूर, जहाँ जीतेगा इंसान!
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