सबसे भयंकर वो दिन होगा जब…
सबसे भयंकर वो दिन होगा जब,
झूठ को सत्य बताया जाएगा,
सच बोलने की सज़ा होगी,
ख़ामोशी को इनाम बनाया जाएगा।
सबसे भयंकर वो दिन होगा जब,
रोटी के दाम बढ़ जाएँगे,
मज़दूर के हाथ से काम छिनेगा,
पर महलों में जश्न मनाए जाएँगे।
जब फैक्ट्रियों की भट्टियाँ बुझेंगी,
पर हथियारों के कारख़ाने जलेंगे,
जब अनाज गोदामों में सड़ेगा,
पर भूखे पेट फाँसी लगेंगे।
जब फसलें उगाने वाले हाथ,
हथकड़ियों में जकड़ दिए जाएँगे,
जब किताबों को जलाया जाएगा,
और झूठ का परचम लहराएगा।
जब हुक्मनामा जारी होगा—
"बेरोज़गारी पर सवाल नहीं पूछना,
रोटी नहीं तो भी नारे नही लगाओ,
भूख से लड़ो, पर आवाज़ मत उठाओ!
जब दीवारों पर चिपकेंगे पोस्टर—
"हड़ताल करना ग़द्दारी है,
हक़ माँगना साज़िश है,
और इंक़लाब की बातें आतंकवाद हैं!
जब मंदी की मार पड़ेगी सबपर,
पर दोषी ग़रीब ठहराए जाएँगे,
जब मेहनत की क़ीमत घटेगी,
पर जंग के सौदागर बचाए जाएँगे।
जब अख़बार झूठ से भरेंगे,
गरीबों को ही गुनहगार कहेंगे,
इंसान को सिर्फ़ एक
आँकड़ा समझा जाएगा।
जब देशभक्ति की परिभाषा,
हथियारों से लिखी जाएगी।
जब भीड़ भटकाई जाएगी,
नफ़रत की आग में झोंकी जाएगी,
जब मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में,
रोटी की भूख भुलाई जाएगी।
मगर…
सबसे सुन्दर वो दिन होगा जब,
मज़दूर हाथों में झंडा उठाएगा,
जब नफ़रत का हर क़िला ढहेगा,
और मेहनत का ताज सजाया जाएगा।
जब हर फ़रमान को चीरकर,
हर दमन को तोड़कर,
मेहनत का इंक़लाब उठेगा,
और हुकूमत को जवाब मिलेगा।
सबसे सुन्दर वो दिन होगा जब,
मज़दूर अपनी ताक़त पहचानेगा,
जब नारे सिर्फ़ दीवारों पर नहीं,
बल्कि सड़कों पर गूँजेंगे।
जब सत्ता की कुर्सी डोलेगी,
जब इंसाफ़ की सड़कों पर भीड़ उमड़ेगी,
जब मेहनत का हक़ छीना नहीं,
बल्कि लड़कर जीता जाएगा।
सबसे सुन्दर वो दिन होगा जब,
भूख से बिलखते लोग नहीं होंगे,
नफ़रत की बोली बिकेगी नहीं,
फिर हथियार नहीं, हल चलेंगे।
जब कारख़ाने फिर धुआँ उगलेंगे,
मज़दूर के घर भी चूल्हे जलेंगे,
जब हर मेहनतकश का हक़ मिलेगा,
और उसका पसीना सोना बनेगा।
जब सत्ता का सिंहासन काँपेगा,
जब सड़कों पर इंक़लाब होगा,
जब मेहनत की ताक़त पहचानी जाएगी,
फिर कोई मंदी, कोई फ़ासीवाद,
हमारी क़िस्मत नहीं लिख पाएगा!
सबसे भयंकर वो दिन होगा जब,
हम चुप रह जाएँगे…
और सबसे सुन्दर वो दिन होगा जब,
हम उठ खड़े होंगे!
एम के आज़ाद
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